कश्मीरी पंडितों के लिए आस्था का केंद्र शारदा पीठ
शारदा पीठ मंदिर का आस्था के साथ-साथ धार्मिक महत्व भी है। एस समय था जब ये स्थान शिक्षा का प्रमुख केंद्र माना जाता था। शारदी पीठ मुजफ्फराबााद से लगभग 140 किलोमीटर और कुपवाड़ा से करीब 30 किलोमीटर दूर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पास नीलम नगीं के तहत पर स्थित है।। कहा जाता है की इस मंदिर को महाराज अशोक ने 237 ईसा पूर्व में बनवाया था। एक समय था जब शिक्षा का प्रमुख केंद्र इस मंदिर पर कश्मीरी पंडितों सहित पूरे देशभर से लोग यहां दर्शन करने आते थे। इतिहासकारों के अनुसार, शारदा पीठ मंदिर अमरनाथ और अनंतनाग के मार्तंड सूर्य मंदिर की तरह की कश्मीरी पंडितों के लिए श्रद्धा का केंद्र रहा। कश्मीरी पंडितों के लिए अत्यंत पूजनीय शारदा देवी मंदिर में पिछले 70 सालों से पूजा नहीं हुई है।
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मंदिर को लेकर धार्मिक मान्यता
माना जाता है कि शारदा पीठ शाक्त संप्रदाय को समर्पित प्रथम तीर्थ स्थल है। कश्मीर के इी मंदिर में सर्वप्रथम देवी की आराधना शुरू हुई थी। बाद में खीर भवानी और वैष्णो देवी मंदिर की स्थापना हुई। कश्मीरी पंडितों का मानना है कि शारदा पीठ में पूजी जाने वाली मां शारदा तीन शक्तियों का संगम है। पहली शारदा (शिक्षा की देवी) दूसरी सरस्वती (ज्ञान की देवी) और वाग्देवी (वाणी की देवी)।
क्या है शारदा पीठ मंदिर की पौराणिक कथा
पौराणिक कथाओं के अनुसार, जब भगवान शिव देवी सती के देह त्याग करने के बाद उनका शव लेकर दुख में डुबे हुए थे और सती के शव के साथ तांडव किया था तब उसमें सती का दाहिना हाथ इसी यहां आ गिरी था। हिंदू धर्म की मान्यता के अनुसार, इसे देवी शक्ति के 18 महाशक्ति पीठों में से एक माना गया है।
शंकराचार्य और रामानुजाचार्य ने यहां हासिल की बड़ी उपलब्धि
ये मंदिर विद्या की देवी सरस्वती को समर्पित है। एक समय था जब शारदा पीठ भारतीय उपमहाद्वीप में सर्वश्रेष्ठ मंदिर विश्वविद्यालयों में से एक हुआ करता था। कहा जाता है की शैव संप्रदाय के जनक कहे जाने वाले शंकराचार्य और वैष्णव संप्रदाय के प्रवर्तक रामानुजाचार्य दोनों ही यहां पर आए थे और दोनों ने यहां महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल की। शंकराचार्य ने यहां सर्वज्ञ पीठ पर बैठ और रामानुजाचार्य ने यही पर श्रीविद्या का भाष्य प्रवर्तित किया।
14 वीं शताब्दी तक कई बार प्राकृतिक आपदाओं के कारण मंदिर को बहुत क्षति पहुंची। बाद में विदेशी आक्रमणों में भी इसका काफी नुकसान हुआ। इस मंदिर की आखिरी बार मरम्मत 19वीं सदी के महाराजा गुलाब सिंह ने कराई थी।
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