ओशो सिद्धार्थ औलिया
तुलसी कहते हैं- ‘बंदउं राम नाम रघुबर के।’ इसका अर्थ थोड़े-से लोग ही जानते हैं। जानने वालों में भी कम ही लोग इसका प्रयोग करते हैं। जो प्रयोग करते हैं, उनमें से भी कुछ ही मंजिल को हासिल कर पाते हैं। धर्मयात्रा में मुसाफिर ही मंजिल होता है। हर मंजिल की यात्रा आकार से यानी पूजा-पाठ से शुरू होती है- चाहे वह आकार किसी मूर्ति का हो, मंदिर-मस्जिद, पेड़ या नदी का। आकार की पुजारी सम्मान का पात्र है क्योंकि उसके आगे सिर झुकाना आ गया है। सिर झुकाना यानी अपने अहंकार को झुकाने को तैयार हो गया है। लेकिन अधिक सौभाग्यशाली लोग पूजा-पाठ पर नहीं रुकते। वह इससे आगे व्रत, नियम, स्तुति, अनुष्ठान, कर्मकाण्ड, यज्ञादि भी करते हैं। लेकिन जो प्रज्ञावान होगा, वह इतने से ही संतुष्ट नहीं हो सकता। वह इससे आगे बढ़ता है और सदाचार, दान-पुण्य, जनहित के कार्य करने, बेहतर इंसान बनने की कोशिश को प्राथमिकता देते हैं। उनसे भी अधिक प्रतिभाशाली ग्रंथों के अध्ययन और स्वाध्याय में रुचि लेते हैं। लेकिन बहुत से लोग गीता, रामायण आदि पर रुक जाते हैं जबकि तुलसी स्वयं कहते हैं रामायण में- ‘बिन गुरु होई न ज्ञान।’ जब रामायण का रचयिता कह रहा हो कि गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता तो ज़ाहिर है,इससे भी आगे बढ़ना होगा।
इससे आगे की मंजिल है- सत्संग। सत्संग यानी संत की संगति। संतों को सुनने से विवेक पैदा होता है- ‘बिनु सतसंग विवेक न होइ, राम कृपा बिनु सुलभ न सोइ।’ लेकिन सत्संग भी आखिरी पड़ाव नहीं है। इससे आगे है- ध्यान, यानी अपने भीतर जाने की तैयारी। ध्यान यानी भीतर के आकाश से, शून्यता से, निराकार से जुड़ना।
निराकार से जुड़ने पर ही असली रामनाम से परिचय होता है। बिना रामनाम को जाने की गई पूजा फलित नहीं होती। रहीम कहते हैं- ‘राम नाम जान्यो नहीं, भई पूजा में हानि।’ कबीर से किसी ने पूछा कि आप जिस रामनाम की पूजा करते हैं, वह हमें भी बताएं। कबीर बोले-‘है कोई राम नाम बतावै, बस्तु अगोचर मोहि लखावै। राम नाम सब कोई बखानैं, राम नाम का मरम न जानैं।’ रामनाम रहस्य की बात है। इसकी बात तो सब करते हैं लेकिन इसका भेद कोई विरला जानता है। यह रामनाम ऊपर-ऊपर का नहीं है। यह वह नाम है जिसकी स्मृति से, जिसके सुमिरन से आनन्द का अनुभव हो- ‘ऊपर की मोहिं बात न भावै, देखै गावै तो सुख पावै।’यदि रामनाम आनन्ददायी न हो तो फिर उसका कोई अर्थ नहीं। वस्तुतः, राम को जाने बिना राम का नाम लेना अधर्म है।
तुलसी कहते हैं, रामनाम तीन तरह का होता है- ‘श्रवणात्मक ध्वन्यात्मक वर्णात्मक विधि तीन, त्रिविध शब्द अनुभव अगम तुलसी कहहिं प्रवीन।’ वर्णनात्मक यानी उसे लिखा जा सकता है। तुलसी कहते हैं कि ऐसा राम किसी काम का नहीं। दूसरा है- ध्वन्यात्मक यानी रामनाम की धुन -राम राम, राम राम जपना। तुलसी कहते हैं कि ध्वन्यात्मक राम कुछ दूर तक तो ले जा सकता है लेकिन मंजिल तक नहीं पहुंचा सकता। तीसरा है- श्रवणात्मक यानी न बोलना, न लिखना। बस, आंख बंद करके निराकार में चले जाना। वहां एक बड़ी प्यारी बांसुरी बज रही है। उसे सुनते हुए एक आनन्द का अनुभव होना शुरू होता है। उसी श्रवणात्मक राम को, जो निराकार में गूंज रहा है, तुलसी उसे ही असली रामनाम कहते हैं। सारे संत, सारे वेद, सारे उपनिषद उसी रामनाम की महिमा गाते हैं जो आत्मा का प्रकाश है-‘राम नाम कर अमित प्रभावा, संत पुरान उपनिषद गावा।’
तुलसी कहते हैं कि वह राम इतना विराट है कि दशरथपुत्र राम भी उस राम का पूरी तरह वर्णन नहीं कर सकते- कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई।’ इसी भाव को एक अन्य स्थान पर भी तुलसी ने ‘अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा, अकथ अगाध अनादि अनूपा‘ कहकर व्यक्त किया है। नाम की यह संपदा गुरु से मिलती है। गुरु अंतरआकाश में आपको इसी रामनाम से एकाकार होने की कला सिखाता है। इस नाम का सुमिरन आपको धीरे-धीरे मंज़िल तक ले जाता है। जो कोई भी मंज़िल तक पहुंचा है, इसी ओंकार से पहुंचा है-‘सबै सयाने एक मत, सब की एक ही जात,जिन पहुंचे तिन कह गए, सबकी एक ही बात।’ओंकार वह हमारे भीतर की आत्मा का संगीत है,हमारी ही आत्मा का प्रकाश है। इसलिए तुलसी कहते हैं, उस रामनाम की वन्दना करो जिससे सारी सृष्टि पैदा होती है, जिससे सारा जीवन चलता है, जिससे सारी सृष्टि का पालन होता है, पोषण होता है-‘बन्दउं नाम राम रघुबर के, हेतु कृषानु भानु हिमकर के। रामनवमी का यह अवसर उसी रामनाम को जानने का एक निमंत्रण है।