इनमें से दो तो अब भी हैं, लेकिन तीसरी नदी सरस्वती अब यहां दिखाई नहीं देती। लुप्त सरस्वती के बारे में अनेक किंवदन्तियां हैं, कहा जाता है कि वह धरती के अन्दर-ही-अन्दर बह रही है। संगम पर लोग नांव में बैठकर गंगा-यमुना की धारओं के मिलन को देखते हैं। गंगा का जल स्वच्छ सफेद और यमुना का जल नील वर्ण है। दोनों रंग साफ अलग-अलग दिखाई पड़ते हैं। संगम से आगे गंगा का जल भी कुछ नीला-सा हो जाता है। कहते हैं, संगम से आगे नाम गंगा का रह जाता है और रंग यमुना का। हिमालय की पुत्री होने के कारण गंगा का जल शीतल है, सूर्य की कन्या माने जाने के कारण यमुना का गर्म। सर्दियों में स्नान करने पर इस तथ्य की सच्चाई स्पष्ट रूप से अनुभव होती है।
संगम पर बहुत से लोग अपने दिवंगत हुए सम्बन्धियों की भस्म और अस्थियां गंगा में विसर्जित करने आते हैं ताकि दिवंगत आत्मा को शांति और मोक्ष मिले। तीर्थराज प्रयाग होने के कारण प्रयाग में मन्दिर बहुत हैं जिनमें से पातालपुरी या अक्षयवट का मन्दिर प्रसिद्ध मन्दिरों में से एक है। १३०० वर्ष पूर्व चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी इसी वृक्ष का उल्लेख किया है। प्रयाग में आने वाले योगियों द्वारा इसकी बड़े भक्ति-भाव से पूजा की जाती है। इस प्रकार प्रयाग का प्राचीन समय से लेकर अब तक बड़ा महत्व रहा है। वेद से लेकर पुराण तक और संस्कृत कवियों से लेकर लोकसाहित्य के रचनाकारों तक संगम की महिमा का उद्घोष सभी ने किया है। प्रयाग का संगम तट अनादिकाल से ही ऋषि-महर्षियों, साधु-संतों, साधक एवं गृहस्थों को अपनी अनुपम छटा एवं मुक्तिदायनी शक्तियों के चलते अपनी ओर खींचता रहा है। पुराणों के अनुसार प्रयाग से ही विश्व के सभी तीर्थ उत्पन्न हुए हैं, यही कारण है कि प्रयाग को तीर्थराज कहते हैं।