कैसे शुरू हुई जगन्नाथ रथ यात्रा
धार्मिक मान्यता के अनुसार एक बार बहन सुभद्रा ने अपने भाइयों कृष्ण और बलरामजी से नगर को देखने की इच्छा प्रकट की। फिर दोनों भाइयों ने बड़े ही प्यार से अपनी बहन सुभद्रा के लिए भव्य रथ तैयार करवाया और उस पर सवार होकर तीनों नगर भ्रमण के लिए निकले थे। रास्ते में तीनों अपनी मौसी के घर गुंडिचा भी गए और यहां पर 7 दिन तक रुके और उसके बाद नगर यात्रा को पूरा करके वापस पुरी लौटे। तब से हर साल तीनों भाई-बहन अपने रथ पर सवार होकर नगर भ्रमण पर निकलते हैं और अपनी मौसी के घर गुंडीचा मंदिर जाते हैं। इनमें सबसे आगे बलराम जी का रथ, बीच में बहन सुभद्रा का रथ और सबसे पीछे जगन्नाथजी का रथ होता है।
जगन्नाथ यात्रा का महत्व
भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहन के रथ नीम की परिपक्व और पकी हुई लकड़ी से तैयार किए जाते हैं। इसे दारु कहा जाता है। रथ को बनाने में केवल लकड़ी को छोड़कर किसी अन्य चीज का प्रयोग नहीं किया जाता है। भगवान जगन्नाथ के रथ में कुल 16 पहिए होते हैं और यह बाकी दोनों रथों से बड़ा भी होता है। रथ यात्रा में कुछ धार्मिक अनुष्ठान भी किए जाते हैं। मान्यता है कि इस रथ यात्रा का साक्षात दर्शन करने भर से ही 1000 यज्ञों का पुण्य फल मिल जाता है। जब तीनों रथ यात्रा के लिए सजसंवरकर तैयार हो जाते हैं तो फिर पुरी के राजा गजपति की पालकी आती है और फिर रथों की पूजा की जाती है। उसके बाद सोने की झाड़ू से रथ मंडप और रथ यात्रा के रास्ते को साफ किया जाता है।
हर साल इस मजार पर क्यों रुकता है यह रथ भगवान जगन्नाथ का रथ अपनी यात्रा के दौरान मुस्लिम भक्त सालबेग की मजार पर कुछ देर के लिए जरूर रुकता है। माना जाता है कि एक बार जगन्नाथजी का एक भक्त सालबेग भगवान के दर्शन के लिए पहुंच नहीं पाया था। फिर उसकी मृत्यु के बाद जब उसकी मजार बनी तो वहां से गुजरते वक्त रथ खुद ब खुद वहां रुक गया। फिर उसकी आत्मा के लिए शांति प्रार्थना की गई तो उसके बाद रथ आगे बढ़ पाया। तब से हर साल रथयात्रा के दौरान रास्ते में पड़ने वाली सालबेग की मजार पर जगन्नाथजी का रथ जरूर रुकता है।