गुजरात की स्थापना को 60 साल पूरे
आर्थिक और धार्मिक दृष्टि के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाले राज्य गुजरात का आज स्थापना दिवस मनाया जा रहा है। आज गुजरात की स्थापना को 60 साल पूरे हो गए हैं। इस अवसर पर आज हम यहां की धार्मिक नगरी द्वारका की बात करेंगे और आपको यहां के इतिहास से रू-ब-रू कराएंगे।
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द्वारका का महत्व
यह तो हम सभी ने पढ़ा है और हमारी आस्था है कि द्वारका नगरी की स्थापना द्वापर युग में भगवान कृष्ण द्वारा की गई थी। मान्यता है कि यह द्वारका भारत वर्ष के सबसे पुराने व्यवस्थित शहरों में से एक है। यहां प्राचीन शहर की झलकियां आज भी देखने को मिलती हैं। पुराने समय में कोई शहर बसाते समय आक्रमण से सुरक्षा की दृष्टि के मद्देनजर शहर के चारों ओर दीवार बनाई जाती थी। प्राचीन द्वारका का बड़ा हिस्सा समुद्र में समा गया था लेकिन कुछ अंश बाकी रह गया था। यहां आज भी उसके कुछ अवशेष देखने को मिलते हैं।
कृष्ण भगवान के पड़पोते ने करवाया निर्माण
पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि प्राचीन द्वारका के जलमग्न होने के बाद भगवान कृष्ण के पड़पोते वज्रभान ने मंदिर का निर्माण करवाया। वहीं आदि गुरु शंकरायार्च ने भी मंदिर के विस्तार और निर्माण में प्रमुख योगदान दिया।
अद्भुत है मंदिर
चूना-पत्थर से बना हुआ सात मंज़िला द्वारकाधीश मंदिर जिसकी ऊंचाई करीब 157 फीट है। बाहरी दीवारों पर कृष्ण की जीवन लीलाओं की हुई है। आंतरिक भाग साधारण और सौम्य है। मंदिर के दो प्रवेश द्वार हैं जो दक्षिण में है उसे स्वर्ग द्वार कहा जाता है तीर्थ यात्री आमतौर पर इसी द्वार के माध्यम से मंदिर में प्रवेश करते हैं।
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भेंट द्वारका या बेट द्वारका
भेंट का मतलब मुलाकात और उपहार भी होता है। इस नगरी का नाम इन्हीं दो बातों के कारण भेंट पड़ा। दरअसल ऐसी मान्यता है कि इसी स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण की अपने मित्र सुदामा से भेंट हुई थी। गोमती द्वारका से यह स्थान 35 किलोमीटर दूर स्थित है। इस मंदिर में कृष्ण और सुदामा की प्रतिमाओं की पूजा होती है। मान्यता है कि द्वारका यात्रा का पूरा फल तभी मिलता है जब आप भेंट द्वारका की यात्रा करते हैं। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण का महल यहीं पर हुआ करता था। द्वारका के न्यायाधीश भगवान कृष्ण ही थे। माना जाता है कि आज भी द्वारका नगरी इन्हीं की कस्टडी में है। इसलिए भगवान कृष्ण को यहां भक्तजन द्वारकाधीश के नाम से पुकारते हैं। मान्यता है कि सुदामा जी जब अपने मित्र से भेंट करने यहां आए थे तो एक छोटी सी पोटली में चावल भी लाए थे। इन्हीं चावलों को खाकर भगवान कृष्ण ने अपने मित्र की दरिद्रता दूर कर दी थी। इसलिए यहां आज भी चावल दान करने की परंपरा है। ऐसी मान्यता है कि मंदिर में चावल दान देने से भक्त कई जन्मों तक गरीब नहीं होते।
(सभी फोटो श्रेयांश त्रिपाठी की तरफ से)