हमेशा खुश रहना है तो सोचने का तरीका बदलें

दलाई लामा

मेरा मानना है कि हमारी जिंदगी का मकसद ही खुश रहना है। यह बात एकदम साफ है। कोई धर्म को मानने वाला हो या न हो या किसी भी धर्म को मानने वाला हो, दुनिया का हर शख्स जिंदगी में कुछ अच्छे की तलाश में है। इसलिए मेरा मानना है कि हमारा खुश रहना ही हमारी जिंदगी को आगे बढ़ाने का ईंधन है। लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या मैं खुश हूं? मेरा जवाब है, ‘हां मैं खुश हूं और मैं यह यकीन के साथ कह सकता हूं।’ अब आप पूछेंगे कि क्या ऐसा मुमकिन है कि हर इंसान खुश रहे। क्या ऐसा मुमकिन है? मेरा मानना है कि दिमाग को एक खास तरह की ट्रेनिंग के जरिए हमेशा खुश रखा जा सकता है।

जब मैं दिमाग की ट्रेनिंग की बात करता हूं तो मैं सिर्फ शरीर में मौजूद भौतिक दिमाग या सोच-समझ की क्षमता की बात नहीं करता। मैं इसे तिब्बती शब्द ‘सेम’ के करीब रखता हूं। इसका मतलब मैं ‘मानस’ और ‘आत्मा’ के तौर पर देखता हूं। इसमें बुद्धि-विवेक के साथ भावनाएं और दिलो-दिमाग भी शामिल है। एक खास तरह के अनुशासन से हम अपने रवैये और रहन-सहन में खास बदलाव ला सकते हैं। जब हम भीतरी अनुशासन की बात करते हैं तो स्वाभाविक रूप से इसमें कई चीजें और तरीके शामिल होते हैं।

मूल रूप से इसमें खुशियों और दुखों की ओर जाने वाले रास्तों की पहचान करना शामिल है। इस बात को समझने की जरूरत है कि खुशी एक खास ‘स्टेट ऑफ माइंड’ या दिमाग की एक खास दशा है। इसका बाहरी चीजों से कोई लेना-देना नहीं है। यह अपनी परिस्थितियों को समझने का तरीका है। हमें इस बात को समझना होगा कि हमारे पास जो है, उसकी हम कितनी कद्र कर रहे हैं और जो हमारे पास नहीं है हम उसके लिए कितने फिक्रमंद हैं। कभी सोचकर देखिए, आखिर हमारी संतुष्टि की मूल वजह क्या है? कहीं-न-कहीं यह तुलना करने की हमारी आदत में छुपी है। जब हम आज की परिस्थितियों से बीत चुके कल की परिस्थितियों के दुखों और परेशानियों से तुलना करते हैं तो हम खुश हो जाते हैं। हालांकि इस तरह की खुशी परमानेंट नहीं होती। कुछ दिनों बाद इस वक्त की अच्छी परिस्थितियां भी नॉर्मल मालूम पड़ने लगती हैं।

हालांकि हमेशा खुश रहना मुमकिन है लेकिन इस स्थिति को हासिल कर पाना आसान नहीं है। बुद्ध धर्म में इसके कई स्तर हैं। मिसाल के तौर पर धन-दौलत, सांसारिक संतुष्टि, अध्यात्म और परमज्ञान के साथ संतुलन बनाने पर ही खुशियों की चाबी मिल सकती है। अब अगर व्यावहारिकता की बात करें और किसी भी धर्म और अध्यात्म को किनारे रख कर बात करें तो हमारी दिमागी स्थिति ही हमारी खुशी में सबसे बड़ा योगदान देती है।

अगर हम अपनी अनुकूल परिस्थितियों जैसे अच्छी सेहत और पैसे को दूसरों की मदद के लिए इस्तेमाल करें तो यह हमारी खुशियों को बढ़ाने में कारगर सिद्ध हो सकता है। यह सही है कि हम अपनी सफलता और धन-दौलत का लुत्फ लेते हैं लेकिन क्या कभी सोचा है कि इसके लिए भी सही मानसिक स्थिति की जरूरत होती है। एक बार सोच कर देखिए: अगर अपने भीतर किसी के लिए गुस्सा और घृणा के भाव रखते हैं तो धीरे-धीरे यह मानसिक सेहत को नुकसान पहुंचाता है और इसकी वजह से शारीरिक सेहत भी गिरने लगती है। ऐसे हालात में मानसिक अप्रसन्नता और झुंझलाहट पैदा होने लगती है।

चाहे हमारे पास कितनी भी धन-दौलत और ऐशो-आराम का सामान हो ऐसी परिस्थितियों में कोई भी चीज खुशी नहीं दे सकती। भव्य ऐश्वर्य के नीचे कहीं भारी निराशा, दुख और झुंझलाहट छुपी रहती है और हालात खराब होने पर यह इंसान को आत्महत्या तक के रास्ते पर ले जा सकती है। इस लिए कोई गारंटी नहीं कि भौतिक सुख-सुविधा अपने साथ खुशियां लेकर आती है।

ऐसा ही हम अपने करीबी दोस्तों के बारे में कह सकते हैं। जब हम बहुत गुस्से या झुंझलाहट की मन:स्थिति में होते हैं तो हमे अपना सबसे घनिष्ठ दोस्त भी दुश्मन, निष्क्रिय और कष्टदायी लगने लगता है। ये सब उदाहरण बताते हैं कि किस तरह हमारे दिमाग की एक खास दशा पर खुश रहना निर्भर करता है। ऐसे में अगर आध्यात्मिक और धार्मिक चश्मे से न भी देखें तो रोजमर्रा की जिंदगी में भी जितना हम शांत होगे, उतना ही हमारा मष्तिष्क शांत होगा और ऐसे में जिंदगी को भरपूर जी पाने की ज्यादा क्षमता हमारे भीतर नजर आएगी।

हम मूल रूप से खुशियां ढूंढने के लिए ही बने हैं। यह साफ है कि प्यार, करीबी और दया जैसे गुणों से ही खुशी पाई जा सकती है। मेरा मानना है कि हम सभी के भीतर वह सब मौजूद है जिसके जरिए खुशी पाई जा सकती है। मैं तो यहां तक कहूंगा कि इंसान का मूल स्वभाव ही दया और सौम्यता से भरा हुआ है। जितना हम अपने मूल स्वभाव के करीब होंगे, उतने ही हम खुश रहेंगे। इंसान का मूल स्वभाव ही प्यार करना है। पैदा होने के बाद हम क्या करते हैं/ अपनी मां या किसी और के जरिये दूध पीते हैं। यह प्रेम या स्नेह का ही एक स्वरूप है। इसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते। यह प्रेम और स्नेह भी तब तक बरकरार नहीं रह सकता, जब तक कि इसके बदले प्रेम देने वाला कोई न हो। यही जिंदगी का सच है।

मैं विज्ञान के इस तथ्य को कतई नहीं मानता कि इंसान का मूल स्वभाव ही संघर्ष और हिंसा से जुड़ा है। ये सारे काम इंसान के जीन का हिस्सा नहीं हैं। विज्ञान यह बात साबित कर चुका है कि जो लोग करीबी सामाजिक रिश्ते नहीं बना पाते, उनके बीमार होने की संभावना ज्यादा होती है और वे खुश भी नही रहते। ऐसे में उनके तनाव में आने के चांस सबसे ज्यादा होते हैं। इंसान प्रेम देकर और अच्छी मन:स्थिति के साथ ही खुशी पाने की राह पर आगे बढ़ सकता है।

(दलाई लामा और हॉर्वर्ड सी कटलर की किताब ‘द आर्ट ऑफ हैपीनेस’ के संपादित अंश)