समाज में अपनी विद्वत्ता मनवाने के लिए आपमें भी यह गुण होना है जरूरी

मिस्र में जुन्नुन नाम के एक सूफी संत थे। एक दिन उनसे मिलने एक नौजवान आया। उसने कहा, ‘मैंने काफी पढ़ाई की है। मुझे जिन शिक्षकों ने सिखाया, वे सब मेरी बहुत तारीफ करते थे। लेकिन जब लौटकर मैं अपने गांव आया तो यहां कोई मुझे किसी लायक नहीं समझता। मेरी समझ में नहीं आ रहा कि अपनी प्रतिभा का सिक्का अपने गांव के लोगों के मन में कैसे बैठाऊं। आखिर विद्वत्ता का फायदा ही क्या जब वह समाज में आपका मान न बढ़ाए?’ जुन्नुन मुस्कराए और अपनी उंगली से एक अंगूठी निकालकर बोले, ‘बेटे, मैं तुम्हारे सवाल का जवाब जरूर दूंगा, लेकिन पहले तुम इस अंगूठी को सामने के बाजार में एक अशर्फी में बेचकर दिखाओ।’ नौजवान ने सामान्य सी लगने वाली अंगूठी को देखकर कहा, ‘इसके लिए सोने की एक अशर्फी! इसे तो कोई चांदी के एक दीनार में भी नहीं खरीदेगा।’ जुन्नुन ने कहा, ‘कोशिश करके तो देखो।’

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नौजवान ने वह अंगूठी बहुत से सौदागरों, परचूनियों, साहूकारों यहां तक कि हज्जाम और कसाई को भी दिखाई, पर उनमें से कोई भी उस अंगूठी के लिए एक अशर्फी देने को तैयार नहीं हुआ। हारकर उसने जुन्नुन को जा कहा, ‘कोई भी इसके लिए चांदी के एक दीनार से ज्यादा रकम देने को तैयार नहीं है।’

जुन्नुन ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘अब तुम इस सड़क के पीछे सुनार की दुकान पर जाकर उसे यह अंगूठी दिखाओ।’ नौजवान जब सुनार की दुकान से लौटा तो उसका चेहरा कुछ और ही बयां कर रहा था। उसने जुन्नुन से कहा, ‘आप सही थे। बाजार में किसी को भी इस अंगूठी की सही कीमत का अंदाजा नहीं है। सुनार ने इस अंगूठी के लिए सोने की एक हजार अशर्फियों की पेशकश की है।’ जुन्नुन ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘और वही तुम्हारे सवाल का जवाब है। अपने सद्गुणों की पहचान उन लोगों से न करवाओ जिनमें उन्हें परखने की क्षमता न हो।’

संकलन : मुकेश शर्मा