सबसे बड़ी दौलत है संन्यासियों के पास

बंगाल में एक संत हुए हैं जिनका नाम था युक्तेश्वर गिरि। एक धनी समृद्ध इंसान उनके पास आया और कहने लगा कि ‘आप महात्यागी हैं।’ गिरि खिलखिलाकर हंसने लगे और उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ‘देखो, यह आदमी खुद ही महात्यागी है और उलटे मुझे ही महात्यागी कहता है। आप मुझको मत फंसाओ।’ आदमी चौका। उसने तो तारीफ करने के लिए ऐसा कहा था। शिष्य भी चौंके, क्योंकि युक्तेशर गिरि त्यागी थे, इसमें कोई संदेह ही न था। शिष्यों नें कहा, ‘हम समझे नहीं, वह आदमी ठीक ही तो कह रहा है।’ गिरि ने कहा, ‘इस बात को ऐसे समझो कि एक जगह पर हीरा और पत्थर पड़ा है। यह आदमी पत्थर पकड़े है और मैं हीरा पकड़े हूं और यह मुझको त्यागी कह रहे हैं।’

अब तुम लोग ही बताओ कौन त्यागी है। महावीर त्यागी हैं कि तुम। बुद्ध त्यागी हैं कि तुम। असल में तुम ही त्यागी हो क्योंकि कचरे को पकड़े हो। साधारण लोग समाधि के सुख को छोड़ रहे हैं और बेकार की छोटी-छोटी ऐसी घटनाओं में ध्यान लगा रहे हैं जो शुद्ध नहीं हैं। जहां सब कुछ बुरा और बेकार है वो उसे पकड़े बैठे हैं। सांसारिक लोग महात्यागी हैं लेकिन ये लोग संन्यासियों को त्यागी समझते हैं। उनको लगते हैं संन्यासी त्यागी हैं।

सच में तो वे संन्यासियों पर दया करते हैं कि इन बेचारे लोगों का सब छूट गया या इन्होंने सब छोड़ दिया। कुछ भी नहीं भोगा। सांसारिक लोग भीतर से संन्यासियों का सम्मान भी करते हैं लेकिन गहरे मन में दया भी करते हैं। वो समझते हैं कि बेचारे संन्यासी नासमझ हैं और इन्होंने बिना भोगे सब छोड़ दिया। कुछ तो भोग लेते। उन्हें पता ही नहीं कि वो किसके बारे में ऐसा कह रहे हैं। संन्यासी को महाभोग मिल रहा है। अस्तित्व ने उसे महाभोग में आमंत्रित कर लिया है। असल में दुनिया की सबसे बड़ी दौलत और सुख तो संन्यासियों के पास ही है।