सबसे कम उम्र के नोबेल पुरस्कार विजेता बने वर्नर हाइजेनबर्ग के जीवन की यह कहानी आपको जरूर पढ़नी चाहि‍ए

वर्नर हाइजेनबर्ग के किशोरावस्था में कदम रखते ही प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया। जातीय श्रेष्ठता और साम्राज्य विस्तार के लिए लड़े गए इस युद्ध में जर्मनी आर्थिक तंगी का शिकार हुआ। कई मोर्चों पर मिली हार से उसके नागरिक अपमानित महसूस करने लगे। सर्वहारा और बुर्जुआ दोनों इस अपमान के लिए एक-दूसरे के सिर आरोप-प्रत्यारोप मढ़ते। इसके चलते आंतरिक संघर्ष बढ़ने लगा। इस बढ़ते आंतरिक टकराव के हालात में वर्नर हाइजेनबर्ग के पिता की अध्यापक की नौकरी चली गई। दो जून की रोटी का मोहताज हो वह म्यूनिख शहर से दूर एक जमींदार के यहां मजदूरी करने लगे।

वर्नर हाइजेनबर्ग को भी उसी फार्म-हाउस पर खेतिहर मजदूर के रूप में काम करने के लिए विवश होना पड़ा। एक दिन प्लेटो की ग्रीक भाषा में लिखी एक किताब ‘तिमैयस’ उनके हाथ लगी। पुस्तक में बताए गए परमाणु सिद्धांतों में उनकी दिलचस्पी इतनी बढ़ी कि रात-दिन वह आण्विक रहस्य के बारे में सोचने लगे। पुस्तक पढ़कर वह इतना समझ गए कि परमाणु सिद्धांतों की आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें पैसों की जरूरत पड़ने वाली है। अब वह मजदूरी के बदले जो भी पैसे पाते, उसे बचाने की कोशिश करने लगे।

विश्वयुद्ध समाप्त होने के बाद जर्मनी में गणतंत्र स्थापित हुआ जिसे हम वेमार रिपब्लिक कहते हैं। गणतंत्र की स्थापना के बाद जर्मनी की आर्थिक स्थिति धीरे-धीरे पटरी पर लौटने लगी। वर्नर के पिता की नौकरी बहाल हुई। वर्नर ने खुद मजदूरी करके कुछ पैसे बचाए थे, इसलिए म्यूनिख लौटने पर उन्हें भौतिक विज्ञान की पढ़ाई के लिए म्यूनिख यूनिवर्सिटी में प्रवेश के समय किसी प्रकार की आर्थिक समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। क्वांटम यांत्रिकी और अनिश्चितता के सिद्धांत के अपने मौलिक अध्ययन के कारण उस समय वह सबसे कम उम्र के नोबेल पुरस्कार विजेता बने। सच है कि पुस्तकों में मानव जीवन को बदलने की अद्भुत ताकत होती है।

संकलन : हरिप्रसाद राय