सगुण से निर्गुण की ओर जाना ही अध्यात्म

वेणुगोपाल धूत

पैठण के संत एकनाथ महाराज ने जो भागवत लिखा है, उसमें दत्तात्रेय की एक कथा आई है। कहा है कि दत्तात्रेय के चौबीस गुरू थे। ये गुरू कौन थे? आप अचंभे में पड़ जाएंगे, उनके नाम सुनकर। उनमें अजगर का नाम है, साथ ही पेड़, पहाड़, नदी, कछुआ, कबूतर, बगुला, भंवरा भी उनके गुरु में शामिल हैं। इसके बारे में दत्तात्रेय का कहना है कि ‘जिससे भी मैंने कुछ सीखा, वही मेरा गुरु है। यही कारण है कि मेरे गुरु अनगिनत हैं। मुझे तो पूरा विश्व ही गुरु दिखाई देता है। अर्थात्, प्रकृति के चराचर पदार्थों से कुछ ना कुछ सीख हमें जरूर मिलती है। क्योंकि हर पदार्थ तो परमात्मा के किसी एक गुण का आकार होता है। इस विश्व का हर एक पदार्थ परमात्मा के एक एक गुण की अभिव्यक्ति है।

सहस्त्र दल कमल के समान परमात्मा भी सहस्त्र पंखुडियों से खिलता है। किंतु हमारे पास दत्तात्रेय जैसी कद्र दानी नजर नहीं होती। इसलिए हर पदार्थ परमात्मा का ही रूप है, ऐसा दर्शन हमें नहीं होता। यही कारण है कि पहली सीढ़ी के रूप में ऐसी महान् विभूतियों में ही परमात्मा का दर्शन लेने की सीख दी जाती है। छोटे बच्चे जब बालवाड़ी में जाते हैं तब अक्षरज्ञान के लिए उन्हें पहले बिना जोड़ाक्षर के शब्द सिखाए जाते हैं। उसी प्रकार ईश्वर का आसान रूप समझना हो, तो श्रीराम, श्रीकृष्ण का जीवन जानना जरूरी है। क्योंकि ये लोग ही ईश्वर का आसान रूप है। उनमें हम ईश्वर का दर्शन करते हैं। उन्हें ईश्वर मानकर उनके सामने नतमस्तक होते हैं। इसके आगे की सीढ़ी है- जो भी मिलेगा, उसे ईश्वर ही समझना।

मंगेश पाडगावकर मराठी के श्रेष्ठ कवि हैं। अपनी एक कविता में उन्होंने कहा है‘मैंने कभी ईश्वर से यह नहीं कहा कि मुझे दर्शन दीजिए। क्योंकि मैं तो प्रकृति के हर रूप में उसका ही दर्शन लेता हूं। सागर की उछलती लहरों के रूप में कौन हंसता है? रिमझिम बरसात होती है, तो किसके कारण? शीतल हवा के झोंके हमारे शरीर को दुलारते हैं, तो यह स्पर्श किसका होता है? हरी घास के रूप में कौन झूमता है, नाचता है? फूलों से किसकी सुगंध महकती है? ये सभी दर्शन तो उसी ईश्वर के हैं। उसे ही नजरअंदाज कर, मुझे दर्शन दो कह प्रार्थना करना पागलपन नहीं तो क्या है? यही तो परमात्मा का विश्वरूप दर्शन है। ऐसा दर्शन लेना कठिन तो है, किंतु उस दिशा में हमें जाना ही होगा। क्योंकि सगुण में ग्राह्यता होती है, तो निर्गुण में व्यापकता होती है।

सगुण से निर्गुण की ओर जाना ही तो अध्यात्म कहलाता है। श्रेष्ठ व्यक्तियों को ईश्वर मानकर पूजना, यही ईश्वर की सगुण भक्ति है। ऐसी सगुणभक्ति समाज सहज भाव से करता है। सगुण में रत होना मनुष्य का स्वभाव है। महापुरूषों के उत्सव मनाए जाते हैं। किसी-किसी को गुरु मानकर उनके संप्रदाय बनाए जाते हैं। यही तो सगुणभक्ति है। वह किसी ना किसी महात्मा का अनुकरण करनेवाली है। सच कहा जाए तो सभी संप्रदाय इस ‘सगुणभक्ति में से ही निर्माण होते हैं। बुद्ध ने ईश्वर नहीं माना किंतु उसके संप्रदाय-बालों ने बुद्ध को ही भगवान बना दिया। यही तो हर जगह होता है। संप्रदाय एक खास ढांचा बना देता है। खास अनुशासन निर्माण करता है। आगे जाकर यही ढांचा, यही अनुशासन उस संप्रदाय की मर्यादा बन जाता है। संप्रदाय के अनुयायियों की नजर अपनी अपनी मर्यादा के पार पहुंचती ही नहीं। अंत में हर एक संप्रदाय किसी ना किसी रूप में बंदिशाला बन जाता है। अर्थात् आत्मविकास के लिए जो गुरु या संप्रदाय हम स्वीकार करते हैं, उसी में हमारा व्यक्तित्व बंद हो जाता है।

यह ध्यान में रखना जरूरी है कि सगुण में आधार है, तो उसकी मर्यादा भी है। इसलिए सगुण साकार गुरु की मूर्ति के पार जाने की दिशा हमें मिलना जरूरी है। श्रेष्ठ पुरूष अगर ईश्वर का सगुण रूप है, तो निराकार, शुद्ध ज्ञानस्वरूप ईश्वर है। शुद्ध ज्ञान की पूजा ही ईश्वर की पूजा है। आजकल महापुरूषों की मूर्तियां बनाने का बड़ा शौक है। मूर्ति बनाते समय ऐसे लोगों का केवल हूबहू रूप अपेक्षित नहीं होता। हर महापुरूष अपने अपने ध्येयवाद का प्रतीक होता है। उस मूर्ति के रूप में उसका ध्येयवाद साकार होना जरूरी होता है। शिवाजी महाराज, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी केवल व्यक्ति नहीं हैं। उनके रूप में उनका जीवन तत्वज्ञान साकार होता है। यह तत्वज्ञान उनकी मूर्तियों में दिखना जरूरी होता है। विभूति पूजा करते समय भी इस बात को ध्यान में रखना जरूरी होता है। श्रेष्ठ पुरूषों के ध्येयवाद पर हमारी निष्ठा होनी चाहिए, न कि उनके बाहरी रूप पर।