संत विनोबा भावे की बातों का ऐसा असर की दुकानदार ने ढगना छोड़ दिया

संत विनोबा का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। उनका जन्म बंबई प्रांत के कुलावा जिले में 11 सितंबर 1895 को एक मराठा धार्मिक परिवार में हुआ था। माता-पिता के आचरण के कारण सरस्वती साधना के साथ-साथ धार्मिकता भी उनके रोम-रोम में समा गई थी। प्रारंभिक शिक्षा में वह हमेशा कक्षा के पाठ से आगे-आगे चलते थे। गणित में उनकी अधिक रुचि थी। बड़ौदा के हाईस्कूल में पढ़ने के बाद वह आगे की पढ़ाई के लिए काशी चले गए और गांधीजी से प्रभावित होकर सत्य के प्रयोग भी करने लगे।

यह घटना तब की है, जब विनायक नरहरि काशी पढ़ने के लिए पहुंचे। किसी तरह से एक कमरे का इंतजाम किया। बाहर निकलने लगे तो पाया कि दरवाजे पर लगाने के लिए ताला तो है ही नहीं। अब वह ताला खरीदने के लिए बाजार पहुंचे। एक दुकानदार ने उन्हें एक ताला दिखाया। विनायक ने कीमत पूछी तो उसने उस ताले की कीमत दस आने बताई। विनायक ने ताला हाथ में लेकर गौर से देखा तो उन्हें ताला बहुत हल्का लगा और उसकी कीमत बहुत ज्यादा लगी। वह सोचने लगे इस सेठ को तो अब सत्य के आधार पर ही समझाना पड़ेगा।

उस दुकानदार से विनायक बोले, ‘सेठजी, इस ताले की कीमत तो केवल तीन आने लगती है। लेकिन जब आप दस आने कहते हैं तो आपकी बात सच माननी ही पडे़गी।’ उन्होंने दस आने देकर वह ताला खरीद लिया और रोज उसकी दुकान के सामने से गुजरने लगे। वह दुकानदार से कुछ कहते नहीं, बस उसे गौर से देखते। धीरे-धीरे दुकानदार पर उनका असर पड़ना शुरू हो गया। एक दिन दुकानदार विनायक के सामने आया और बोला, ‘बेटा, तुम्हारे सत्य के आग्रह के समक्ष मैं नतमस्तक हूं। वह ताला सचमुच ही तीन आने का था। यह लो अपने सात आने वापस।’ यह कहकर दुकानदार ने सात आने लौटा दिए और फिर किसी ग्राहक को न ठगने की प्रतिज्ञा कर ली।

संकलन : रमेश जैन