उनमें से कोई भी नहीं कह सका कि वास्तव में उन्होंने सागर को देखा है। एक मछली ने कहा, ”मेरे विचार से मेरे परदादा ने सागर को देखा था”। दूसरी मछली ने कहा, ”हाँ, हाँ मैंने भी इसके बारे में सुना है”।
तीसरी मछली ने कहा, ”हां वास्तव में उसके परदादा ने सागर को देखा था”। फिर उन्होंने एक बड़ा सा मन्दिर बनाया और उस मछली के परदादा की मूर्ति स्थापित की। वे बोलीं कि, “उन्होंने सागर देखा था। उनका सम्बन्ध सागर के साथ था”।
किसी दूसरे से सुनकर बुद्धत्व को बताया या समझाया नहीं जा सकता है। बुद्धत्व हमारी आत्मा के केन्द्र में निहित है, उसका अर्थ है अपने अन्दर जाकर आत्मा का अनुभव करना और उसी स्थिति में रहते हुए अपना जीवन जीना। हम सभी इस संसार में भोलेपन के साथ आए हैं, लेकिन धीरे-धीरे जैसे-जैसे हम अधिक बुद्धिमान होते गए, हमारा भोलापन समाप्त होता गया।
हम शान्ति के साथ पैदा हुए और जैसे-जैसे बड़े हुए, हमने अपनी शान्ति खो दी और हम शब्दों से भर गए। हम शुरू में हृदय से जीते थे, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, हम हृदय से मस्तिष्क की ओर चले गए। इस यात्रा को विपरीत दिशा में ले जाना ही बुद्धत्व है। यह अपने मस्तिष्क से हृदय की तरफ की यात्रा है, शब्दों से शान्ति की तरफ की यात्रा है; वह हमारी बुद्धिमत्ता होने के बावजूद भोलापन वापस लाने की प्रक्रिया है।
यद्यपि यह बहुत सरल लगता है, लेकिन यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। ज्ञान का उद्देश्य है कि वह हमको उस सुन्दर अवस्था तक पहुंचा दे जिसमें हम कह सकें कि “मैं नहीं जानता हूं”। ज्ञान का लक्ष्य है अबोध हो जाना, पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाने पर हम विस्मय और आश्चर्य में आ जाएंगे, वह हमें अस्तित्व के प्रति पूर्णत: सजग कर देता है। रहस्यों को हमें समझना नहीं है बल्कि उनको जीना है। जीवन को पूर्णता के साथ, समग्रता से पूरी तरह जिया जा सकता है।
बुद्धत्व यानि परिपक्वता की वह स्थिति प्राप्त करना जब किसी भी परिस्थिति में हम विचलित न हो पाएं। चाहे कुछ भी हो, चेहरे की मुस्कान कोई भी नहीं छीन सके। जब हम अपने अस्तित्व को सीमित दायरे में न रखकर यह अनुभव करते हैं कि इस ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी है, वह सब मेरा है तब उसी को बुद्धत्व कहते हैं।
यह बताना आसान है कि आत्मबोध क्या नहीं है। यह तब होता है जब हम “मैं इस स्थान विशेष का हूं”, “मैं इस संस्कृति का हूं” या “मैं इस धर्म का हूं” कहकर अपने को सीमित कर देते हैं। यह वैसा ही है जब बच्चे कहते हैं कि मेरे पापा तुम्हारे पापा से अच्छे हैं या मेरा खिलौना तुम्हारे खिलौने से अच्छा है। अधिकांश लोग अभी भी उसी मानसिक आयु में फंसे हुए हैं, बस खिलौने बदल गए हैं। बड़े होकर वह कहते हैं कि ‘मेरा देश तुम्हारे देश से अच्छा है” या “मेरा धर्म तुम्हारे धर्म से अच्छा है”।
हम अपने समूह, धर्म या संस्कृति को केवल इसलिए महान बताते हैं क्योंकि हम उससे जुड़े हैं, इसलिए नहीं क्योंकि हम उनकी विशेषता को देख पा रहे हैं। यदि कोई व्यक्ति हर युग में हुई सभी चीजों का श्रेय लेने में समर्थ हो जाए और यह अनुभव करें कि सब कुछ उसी का है, तब यह परिपक्वता का लक्षण है।
हम यह कह सकें कि “जब सृष्टि के मालिक अपने हैं तो सारी मलकियत भी अपनी है”। देश और काल के अनुसार ईश्वर ने अलग-अलग ज्ञान के द्वारा अपने को प्रकट किया। दरअसल बुद्धत्व की अवस्था भोलेपन और बुध्दिमत्ता का एक दुर्लभ संगम है; यह स्थिति अज्ञान और चालाकी को छोड़कर मिलती है। हम में अपने आत्मतत्व को अभिव्यक्त करने के शब्द होने चाहिए और साथ ही शांत रहने का मूल्य भी जानना चाहिए।
आर्ट ऑफ लिविंग