विजयादशमी पर शमी वृक्ष की पूजा का महत्व और दशहरा की अवधारणा

देवी जया और विजया का पर्व विजयादशमी यानी दशहरा दरअसल नवरात्रि के नौ पावन दिनों के पश्चात खुद पर विजय पाकर स्वयं के पुनर्परिचय का महाकाल है। विजयादशमी अपने ही भीतर के सप्त सुप्त चक्रों पर आसीन नौ ऊर्जाओं और अपनी बाह्य शक्ति से नौ गुनी अधिक आंतरिक क्षमता के बोध से सर्वत्र विजय की महाअवधारणा है। नवरात्रि के नौ दिनों की साधना के पश्चात स्वयं पर काबू पाकर विजय की दशमी अर्थात विजयादशमी का सूत्रपात संभव है।

मूल भाव तो यही है कि स्वयं को जीते बिना जगत को या किसी को भी जीतेंगे कैसे?नवरात्रि का पर्व किसी पंडाल में स्थापित देवी की कृपा प्राप्त करने का नहीं, बल्कि अपने ही भीतर के सप्तचक्रों पर विराजित अपनी ही नौ शक्तियों के बोध और अपनी बाह्य ऊर्जा से नौ गुनी शक्तिशाली आंतरिक ऊर्जा को सहजता और सरलतापूर्वक सक्रिय करने की पावन बेला है। अपने अंतर्मन से बाहर पंडाल में देवी की स्थापना तो बस स्वयं से जुड़ने की किसी वैज्ञानिक पद्धति का हिस्सा प्रतीत होती है, जिसकी तकनीक कालांतर में विस्मृत होने से आज सिर्फ पारंपरिक मान्यताओं की खुराक बन कर रह गयी है।

दशहरे पर इसलिए होती है शमी की पूजा, जानेंगे तो आप भी पूजा जरूर करेंगे

अश्विन माह की दशमी को तारा उदय होने से सर्व कार्य सिद्धि दायक योग बनता है। लिहाजा स्वयं की दस इंद्रियों पर विजय के लिए यह काल सर्वश्रेष्ठ है। दशहरा और दशरथ एक जैसे शब्द हैं। दोनों में दस है। 10 से अभिप्राय है दस इंद्रिया। पांच ज्ञानेंद्रियां और पांच कर्मेंद्रिया। इन्ही इंद्रियों को पराजित करने का प्रतीक है यह पर्व। स्वयं पर विजय पाने वाला ही दशरथ कहलाता है। राम दशरथ की संतान हैं। राम कहीं बाहर से नहीं, इन्ही दशरथ से अर्थात हमारे भीतर से ही प्रस्फुटित होते हैं। दशरथ हमारी आपकी आंतरिक क्षमता का प्रतीक पुरुष है, महाचिह्न है।

किसी को जगाने से पहले स्वजागरण अनिवार्य है। अंतर्दृष्टि न हो तो भटकाव होगा। दृष्टि न हो तो उजाला समझाया नहीं जा सकेगा। किसी नेत्रहीन को उजाले की परिभाषा देकर देखिए, न आप उसे प्रकाश से परिचित करा सकेंगे, न ही वो बिना देखे रोशनी का मर्म समझ सकेगा क्योंकि प्रकाश को बाहर से समझाने का कोई उपाय नहीं है, कोई अर्थ नहीं है। और उसे समझने के लिए सिर्फ दृष्टि ही तो खोलनी है। दशहरा स्वजागरण की बेला है, आंतरिक जागरण का महापर्व है।

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श्रवण नक्षत्र और शमी पूजन
श्रवण नक्षत्र इस पर्व को और भी ज्यादा महत्वपूर्ण बनाता है। इस नक्षत्र में शमी वृक्ष का पूजन इसे अत्यधिक धार प्रदान करता है। श्रवण नक्षत्र इस पर्व में पूजन वाद-विवाद, आक्रमण और द्यूत सहित चहुंओर विजय सुनिश्चित करता है। कौरवों की द्यूत में जीत के पीछे शमी पूजन मुख्य कारक था। श्रीकृष्ण ने यह रहस्य जानकर पांडवों को भी श्रवण नक्षत्र में शमी का पूजन करवा कर उन्हीं के अस्त्र से उन्हें पटखनी दे दी। अर्जुन ने अज्ञातवास में अपने अस्त्र गांडीव को पूरे वर्ष शमी वृक्ष पर रखा। जिससे गांडीव महाभारत में मारक हथियार में रूप में शत्रुओं में खौफ का सबब बन गया। कहते हैं कि श्रीराम ने जब विजय मुहूर्त में पूजन कर लंका पर आक्रमण किया तो शमी वृक्ष स्वयं विजय मुहूर्त में इस पूजन का साक्षी बना।

परंपराओं की चादर में दही के साथ मिष्ठान इस दिन को और भी अधिक प्रभावी बनाता है। कहीं कहीं पूजन में दही के संग जलेबी अर्पित कर उसके प्रसाद रूप में ग्रहण का भी रिवाज है।

सद्गुरु स्वामी आनंदजी

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