डॉक्टर प्रणव पंड्या/ शांतिकुंज, हरिद्वार
भगवान श्रीकृष्ण का बचपन और किशोरावस्था गोकुल के ग्वालबालों को संगठित व शिक्षित करने तथा उनमें धार्मिक व सांस्कृतिक प्रतिमानों को स्थापित करने में बीता। इसी समय उन्होंने अनेक उत्पाती व अनाचारी असुरों का संहार भी किया। कंस को मारने के पश्चात् जब वे सिंहासनारूढ़ हुए, तब उनके अल्हड़ यौवन के आगमन के दिन थे, परंतु उन्होंने साम्राज्य की कंटीली राहों पर चलकर भी अपने जीवन को बहुआयामी बनाया। उन्होंने जीवन के अनेक आयामों को गढ़ा, संवारा और औरों के लिए भी राह बनाया।
भगवान श्रीकृष्ण का जीवन विविधताओं, विशेषताओं और गूढ़ताओं से भरा पड़ा है। उन्होंने अति विषम परिस्थितियों में भी साहस, शौर्य का साथ नहीं छोड़ा और सदा मुस्कराते रहे। वे जब भी और जहां भी रहे, वहां का कार्यकाल पूर्ण होने के पश्चात् कभी वापस मुड़े नहीं। गोकुल छोड़कर मथुरा आए, फिर मथुरा त्यागकर द्वारका चले गए, जहां पर उनके यौगिक एवं आध्यात्मिक जीवन की पराकाष्ठा थी।
भगवान श्रीकृष्ण एक साथ जीवन के अनेक तलों पर जीते थे और अधिकार पूर्वक जीते थे। ऐसा योगी ही कर सकता है। भगवान् कृष्ण महायोगी तथा पूर्ण पुरुष थे। उनके जीवन में सभी आयाम पूर्णता पाते हैं। वे योगी भी थे और योद्धा भी। वे कुशल कूटनीतिज्ञ व राजनीतिज्ञ के साथ भक्तावतार भी थे। वे कर्मयोगी थे तथा कर्म से निवृत्त संन्यासी भी थे। वे एक साथ अर्जुन के सखा, सुदामा के सहचर, उद्धव के आचार्य, गोपियों के स्वामी, तपस्वी, सिद्ध, संत, वैरागी तथा अध्यात्म पुरुष थे। भगवान के किसी भी अवतार ने जीवन के इतने विविध पहलुओं को नहीं छुआ था।
भगवान कृष्ण को इसी पूर्णता व पारंगतता के लिए ही पूर्ण पुरुष कहा जाता है। वे सांख्य दर्शन के एक मात्र पुरुष हैं। भगवान कहते ही उसे हैं, जिसे सामान्य मनुष्य कभी सोच नहीं सकता, कर नहीं सकता। असंभव को सदा संभव करने वाला ही भगवान होता है। कृष्ण भगवान के अवतार थे।
भगवान कृष्ण के कार्य अद्भुत एवं निराले थे। वे एक साथ अनेक विरोधी एवं विचित्र कार्यों को करते थे। वे गोपियों के संग महारास रचाते थे और राजनीति के घोर कर्मों को भी समाहित कर लेते थे। महाभारत के महायुद्ध के बीच भूमि में उन्होंने अर्जुन को गीतोपदेश भी दे दिया। यह एकदम अनोखा कार्य है, क्योंकि युद्ध के वातावरण में सम्यक् ज्ञान का उपदेश देना दुष्कर कार्य है, परंतु उन्होंने इस असंभव को संभव किया और वे अर्जुन के सारथी बने।
कृष्ण अवतार की लीलाओं में अध्यात्म की गहन गूढ़ता पिरोयी हुई है। महारास अध्यात्म की उच्चतम अवस्था है। घोर निशा में सोती हुई गोपियों को बंशी जाकर जगाना, घरों से बाहर एकांत में बुलाना और उनके साथ नृत्य करना, हर गोपी को पूर्ण कृष्ण के साथ नृत्य का अनुभव कराना असामान्य घटना है। ऐसी ही घटना का वर्णन शतपथ ब्राह्मण में है, जिसमें इन्द्र को सहस्र अप्सराओं के साथ नृत्य करता हुआ बताया गया है।
भगवान कृष्ण की सोलह हजार रानियां बताई जाती हैं। इस पहेली के पीछे भी आध्यात्मिक रहस्य है, जो स्पष्ट करती है कि भगवान् कृष्ण अध्यात्म जगत् के शिखर पुरुष थे। श्री अरविन्द उनकी महाचेतना को ओवर माइंड कहते हैं। इस अवस्था में पहुंची चेतना विश्व की समस्त ऋद्धि-सिद्धियों के साथ लीला करती हैं। अध्यात्म के शिखर पर पहुंचे भगवान कृष्ण के क्रियाकलापों में रहस्य का सागर समाया हुआ है। सोलह हजार रानियां आत्माएं हैं, जो परमात्मा की प्राणप्रिय पत्नियां कहलाती हैं। आत्म-समर्पण और अभिन्न एकता की जो भावनात्मक स्थिति है, उसकी तुलना लौकिक रिस्ते में पति-पत्नी के रूप में की जाती है। इसलिए सूफियों ने आत्मा और परमात्मा की एकता को प्रणय सूचक गीतों में गाया है। कबीर का सुरवियोग, मीरा का प्रणययोग अत्युत्तम, उच्चतम आध्यात्मिक भूमिका है। श्रीकृष्ण भगवान् की सोलह हजार रानियां उस अवतार की सहयोगिनी सोलह हजार प्रबुद्ध आत्माएं ही हैं। इस आलंकारिक दाम्पत्य जीवन में हर रानी को आठ-आठ संतानें दीं, अर्थात इन लोगों ने आठ-आठ अपने उत्तराधिकारी बनाए। वे स्वयं तो ईश्वरीय प्रयोजनों में तत्पर रहे, साथ ही उनकी प्रयत्नशीलता ने औसतन आठ-आठ साथी-सहचरों, अनुयायियों को और बढ़ा दिया। यह उनकी संतानें थीं।
ऐसे भगवान कृष्ण का अवतार एवं उनकी लीलाओं में अध्यात्म के मोती बिखरे पड़े हैं। अन्वेषक, साधक, योगी इन सूत्रों का अपने अंतर्जगत् में अभ्यास करते हैं और महारास के महारहस्य की आनन्दानुभूति करते हैं।