मौत से बेखौफ खुसरों ने कहा ईमान से बढ़कर तो नहीं जान की कीमत

सुल्तान जलालुद्दीन हजरत निजामुद्दीन से मिलना चाहते थे। भेंट के लिए सुल्तान ने हजरत निजामुद्दीन से बार-बार इल्तिजा की, लेकिन एक बार भी उन्हें हाजिरी की इजाजत नहीं मिली। हारकर सुल्तान ने निजामुद्दीन के सबसे प्रिय शिष्य अमीर खुसरो को अपने पास बुलाया। खुसरो आए तो सुल्तान उनसे बोले, ‘हजरत तो कैसे भी मुझे हाजिरी की इजाजत नहीं देते। मैंने तय किया है कि बिना इजाजत ही उनकी कदमबोसी के लिए पहुंच जाऊं।’ यह कहकर सुल्तान ने अमीर खुसरो से यह भी कहा, ‘मगर यह बात आप हजरत को न बताइएगा।’

सुल्तान की बातें सुनकर खुसरो गहरे पशोपेश में पड़ गए। सोचने लगे कि अगर सुल्तान का भेद वह महबूब-ए-इलाही से कहते हैं, तो सुल्तान नाराज होगा। अमीर खुसरो आधा दर्जन से भी अधिक सुल्तानों के यहां काम कर चुके थे तो उनकी नाराजगी से वाकिफ थे। फिर सोचा कि अगर यह बात उन्होंने हजरत निजामुद्दीन को न बताई तो उनके भी दुखी होने का अंदेशा है। खुसरो ने पाया कि सुल्तान की नाराजगी से जान जाएगी, मगर हजरत की नाराजगी से ईमान डगमगा जाएगा और हजरत निजामुद्दीन को यह बात बता दी। सुनते ही निजामुद्दीन अपने पीरो मुर्शिद बाबा फरीद के पास चले गए।

बादशाह को हजरत निजामुद्दीन के दिल्ली छोड़ने का पता चला तो वे मामला समझ गए। उन्होंने खुसरो को बुलाया और पूछा, ‘क्या मेरी हाजिरी के भेद को आपने खोल दिया?’ इस पर खुसरो बोले, ‘जी हां। मैंने ही यह भेद खोला है, क्योंकि आपकी नाराजगी से जान जाने का डर था, जो एक दिन जानी ही है। लेकिन उन्हें नाराज करता तो ईमान जाने का डर था, जिसके बगैर जान भला किस काम की? इसलिए मैंने ईमान को जान से ज्यादा अहमियत दी।’ खुसरो का यह जवाब सुनकर बादशाह बोले, ‘धन्य हैं वे गुरु, जिन्हें खुसरो जैसा शिष्य मिला।’

संकलन : मो. सलीम