एक खुदाई खिदमतगार थे सैयद अब्दुल वदूद बादशाह। वह सरहदी गांधी के बड़े प्रिय सत्याग्रही थे। अंग्रेजों ने उन्हें मारपीट कर जेल में डाल दिया। एक रोज अचानक उनके पिता की तबीयत बिगड़ी। सभी खुदाई खिदमतगारों ने तय किया था कि अंग्रेजों से न तो जमानत लेंगे, ना माफी मांगेंगे। मगर पिता ने अपनी बीमारी पर आखिरी बार बेटे को देखने के लिए उनकी जमानत करवा ली। वह घर तो आए, पर जमानत को अपना और आंदोलन का अपमान समझा। अंदर ही अंदर घुटते रहे, साथियों से कैसे आंख मिलाएंगे कि बाप की बीमारी से टूट गए और जमानत ले ली! यह सब सोचकर उन्होंने उसी रात अपना जीवन समाप्त कर लिया।
यह कहानी खुद खान अब्दुल गफ्फार खान ने महात्मा गांधी के सहायक प्यारेलाल को बताई थी। कहानी कहते-कहते वह खुद भी रोने लगे कि किस तरह उसूलों के साथ खुदाई खिदमतगारों ने भारत की आजादी के लिए त्याग किए हैं। सरहदी गांधी बोले, ‘अब्दुल वदूद बता गया कि उसूलों के साथ लड़ना कितना जरूरी है। उसकी मौत ने हमें अहिंसा के रास्ते पर और मजबूती से खड़ा कर दिया कि मिट जाएंगे मगर भारत की आजादी से कम और कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे।’– संकलन: हफीज किदवई