भारत की आजादी के लिए अंग्रेजों से जमानत तक नहीं ली थी इस क्रांतिकारी मुस्लिम ने

बात सन 1931 की है। पख्तून के पठान खान अब्दुल गफ्फार खान में महात्मा गांधी देखते थे। आजादी का आंदोलन जोरों पर था। उसे दबाने के लिए अंग्रेज खुदाई खिदमतगारों और कांग्रेस सत्याग्रहियों की खड़ी फसलें जलाते। उनके अनाज के जखीरे और मकानों में भी आग लगा देते। जेल में इन लोगों को तकलीफ देने के नए-नए तरीके निकालते रहते थे अंग्रेस अफसर। वे खुदाई खिदमतगारों और कांग्रेसी सत्याग्रहियों को नंगा करते, फिर रेस लगवाते। रेस के दौरान अंग्रेज सिपाही उन्हें पैरों और राइफल के कुंदों से मारते, संगीनें चुभोते। उनकी यातनाओं से कई कांग्रेसी और खुदाई खिदमतगार पागल हो गए।

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एक खुदाई खिदमतगार थे सैयद अब्दुल वदूद बादशाह। वह सरहदी गांधी के बड़े प्रिय सत्याग्रही थे। अंग्रेजों ने उन्हें मारपीट कर जेल में डाल दिया। एक रोज अचानक उनके पिता की तबीयत बिगड़ी। सभी खुदाई खिदमतगारों ने तय किया था कि अंग्रेजों से न तो जमानत लेंगे, ना माफी मांगेंगे। मगर पिता ने अपनी बीमारी पर आखिरी बार बेटे को देखने के लिए उनकी जमानत करवा ली। वह घर तो आए, पर जमानत को अपना और आंदोलन का अपमान समझा। अंदर ही अंदर घुटते रहे, साथियों से कैसे आंख मिलाएंगे कि बाप की बीमारी से टूट गए और जमानत ले ली! यह सब सोचकर उन्होंने उसी रात अपना जीवन समाप्त कर लिया।

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यह कहानी खुद खान अब्दुल गफ्फार खान ने महात्मा गांधी के सहायक प्यारेलाल को बताई थी। कहानी कहते-कहते वह खुद भी रोने लगे कि किस तरह उसूलों के साथ खुदाई खिदमतगारों ने भारत की आजादी के लिए त्याग किए हैं। सरहदी गांधी बोले, ‘अब्दुल वदूद बता गया कि उसूलों के साथ लड़ना कितना जरूरी है। उसकी मौत ने हमें अहिंसा के रास्ते पर और मजबूती से खड़ा कर दिया कि मिट जाएंगे मगर भारत की आजादी से कम और कुछ भी स्वीकार नहीं करेंगे।’– संकलन: हफीज किदवई