फिर जब महात्मा गांधी की दयालुता के कारण पूूरी हुई रोगी की अंतिम इच्छा

महात्मा गांधी अपने व्यस्ततम समय में भी दीन-दुखियों की सेवा में तत्पर रहते थे। एक दिन वह सुबह-सवेरे टहलकर अपने आश्रम में लौटे। उन्होंने आश्रम के बाहर एक दीन-हीन व्यक्ति को पड़ा पाया। उसके शरीर से मवाद बह रहा था। वह कुष्ठ रोग से पीड़ित था। उस व्यक्ति ने अपनी धीमी आवाज में बापू को हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘मैं आपके दरवाजे पर शांतिपूर्वक मरने आया हूं। आपके सान्निध्य में मेरी पीड़ा कम हो जाएगी।’

रोगी की इस हालत से बापू का हृदय द्रवित हो उठा, पर उसे वह आश्रय कैसे दें? वह अकेले तो थे नहीं, आश्रम में और भी बहुत से भाई-बहन रहते थे। वह असमंजस की स्थिति में थे। वह सोच रहे थे- मेरे लिए तो कोई बात नहीं, पर दूसरे लोग ऐसे रोगी को रखना पसंद नहीं करेंगे। उनके लिए यह असुविधा की स्थिति बन जाएगी। बापू के मन ने उन्हें धिक्कारा- ‘ठीक है, तब तू मानव-जाति की सेवा करने का व्रत छोड़ दे।’ इस बार आवाज में खीझ और संघर्ष में तीखापन था।

क्षण भर के द्वंद्व से उबरकर एकाएक बापू ने निश्चय किया कि जो व्यक्ति सही मायने में अपने कर्तव्य का पालन करता है, वह दूसरों की नाराजगी की परवाह क्यों करे? एक व्यक्ति आशा लेकर आया है, जीवन के अंतिम क्षण में शांति पाना चाहता है तो उसे मायूस कैसे किया जा सकता है? इस निश्चय के बाद बापू ने अपने बराबर की कोठरी खाली कराई और उस असाध्य रोगी को उसमें रखा। इतना ही नहीं, बापू ने अपने हाथों से रोगी के घाव धोए, मवाद साफ किया और उसे दवा लगाई। रोगी वहीं रहा और परम शांति के साथ उसकी जीवन-लीला समाप्त हुई। बापू के लिए मानव सेवा ही जीवन का चरम लक्ष्य थी। हालांकि बाद में पता चला कि वह रोगी महानुभाव भी संस्कृत के प्रकांड विद्वान परचुरे शास्त्री थे।

संकलन : बेला गर्ग