प्रेमचंद ने आखिर क्यों कहा कि ‘मेरा नाम लेने से इज्जत कम हो जाती’

संकलन: अभिषेक ‘मुसाफिर’
सन 1931 का नवंबर महीना था। शाम छह बजे पटना जंक्शन पर पश्चिम से आने वाली एक्सप्रेस लगी। केशरी किशोर शरण और उनके दोस्त एक ऐसे यात्री को तलाशने लगे, जिसे उन्होंने कभी नहीं देखा था। उन लोगों ने उस यात्री की एक तस्वीर हिंदी भाषा और साहित्य के पहले संस्करण में देखी थी- चौड़ा मुंह, उभरा ललाट, बड़ी और घनी मूछें। जी हां, पटना जंक्शन पर ये लोग कथा सम्राट प्रेमचंद का रास्ता देख रहे थे। प्रेमचंद को पटना हिंदी साहित्य परिषद की सभा में बतौर मुख्य अतिथि आना था।

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उस एक्सप्रेस की सारी सवारियां चली गईं, मगर केशरी किशोर को प्रेमचंद नहीं दिखे। फिर दूसरी गाड़ी आई। दोस्तों के साथ केशरी किशोर ने पूरी गाड़ी छान मारी, प्रेमचंद नहीं दिखे। इसी बीच प्रेमचंद के हुलिए वाले एक सज्जन पटरी पार करते दिखे। दौड़कर सब उनके पास पहुंचे। मगर वह भी प्रेमचंद नहीं थे। हारकर सब वापस घर लौट आए। सबने सोचा कि अब तो बड़ी बेइज्जती होगी, सभा का काफी प्रचार-प्रसार भी हो चुका है। केशरी किशोर ने एक बार फिर से हिम्मत बांधी। अगले दिन सुबह छह बजे वह फिर पटना जंक्शन पर पहुंच गए।

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इस बार सुबह छह बजे पश्चिम से जो एक्सप्रेस आनी थी, वही आखिरी आसरा थी। एक्सप्रेस तो आई, मगर प्रेमचंद उसमें भी नहीं थे। केशरी किशोर थके कदमों से मुसाफिरखाने की ओर बढ़े तो वहां प्रेमचंद की शक्ल के एक और सज्जन दिखे। डरते-डरते उन्होंने पूछा, ‘क्या आप प्रेमचंद हैं?’ पता चला, वही प्रेमचंद थे। केशरी किशोर ने उनसे माफी मांगी। प्रेमचंद ने बताया कि वह तो उसी रात आ गए थे, पर किसी ने पहचाना ही नहीं। केशरी किशोर बोले, ‘हम तो स्टेशन पर ही थे।’ प्रेमचंद बोले, ‘तो फिर आवाज क्यों नहीं लगाई? पहचानते नहीं थे, तो प्रेमचंद कहकर आवाज तो लगाते। मेरा नाम पुकारने से क्या मेरी इज्जत कम हो जाती?’