पुलिस से लड़ते-लड़ते देश पर कुर्बान हो गया आजादी का यह मतवाला

कोल्हापुर (महाराष्ट्र) के ठिकपुर्ली गांव के एक गरीब जैन परिवार में 1927 में एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया भूपाल अण्णस्कुरे। मराठी में छठी कक्षा तक शिक्षा प्राप्त कर परिवार के पालन-पोषण के लिए उसने आस-पास के गांवों में दाल-चावल बेचना शुरू किया। उन दिनों देश की आजादी के लिए क्रांतिकारी गतिविधियां भी जोर-शोर से चल रही थीं। उसी दौर में अण्णस्कुरे की भेंट सांगली से आए क्रांतिकारी पीबी पाटिल से हुई। इस भेंट ने अण्णस्कुरे की पूरी सोच बदल दी और वह दाल-चावल बेचना छोड़कर कूद पड़ा आजादी के आंदोलन में।

अब क्रांतिकारियों का पूरा सहयोग करना, उन्हें खाना पहुंचाना, दवा आदि देना उसका मुख्य काम था। कभी-कभी तो रात के दो-दो बजे तक वह खाना बनाकर भूमिगत क्रांतिकारियों को पहुंचाता। इसी बीच गांव छोड़कर उसने कोल्हापुर में एक छोटा कमरा किराए पर लिया और वहीं से क्रांतिकारी गतिविधियां चलाने लगा। क्रांतिकारियों को हथियार पहुंचाना उसका मुख्य काम था। पुलिस की नजर उस पर पड़ी तो उसे गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस के अत्याचारों और गहन पिटाई से उसका अंग-अंग टूट गया। दाएं हाथ की हड्डी टूट गई और उसमें सेप्टिक हो गया। कुछ साथियों के कहने पर वह पुलिस का गवाह बन गया कि अभी तो जान बच जाए, बाद में जज के सामने बयान बदल देंगे।

इस पर एक दिन जेल के दवाखाने में अन्य मित्रों ने मिलने पर उलाहना दिया, लेकिन अण्णस्कुरे ने मुकदमा शुरू होते ही जज के सामने पुलिस के खिलाफ और क्रांतिकारियों के पक्ष में जोरदार बयान दिया, जिससे पुलिस भौंचक्की रह गई। अब पुलिस के भयंकर अत्याचार उस पर और भी बढ़ गए। कोल्हापुर के बापूसाहेब श्रीमंधर मिरजे ने पांच हजार की जमानत पर छुड़ाकर मिरज में उनका इलाज शुरू कराया, लेकिन 1945 के आषाढ़ में, जिस दिन उन पर दोबारा मुकदमा शुरू होने वाला था, उसी दिन 18 वर्षीय आजादी का यह दीवाना देश के लिए शहीद हो गया।

संकलन : रमेश जैन