पापों के नाश तथा सब सौभाग्यों को देने वाली है अक्षय तृतीया

डॉ. प्रणव पण्ड्या

हमारे यहां की परंपराएं सनातन और शाश्वत हैं। ये कभी मलिन नहीं होती, क्योंकि इनमें विवेक का गठजोड़ होता है। विवेक इनकी अशुद्धियों का परिष्कार एवं परिमार्जन करता रहता है। पर्व इस सनातन प्रवाह में उठने वाली लहरें हैं, जो इस प्रवाह को अपने सरगम के सुरों में सराबोर किए रहती है। यह पर्व परंपरा मनुष्य के जीवन में विकास के नूतन आयाम खोलती है तथा समाज को कुरीतियों-अंधविश्वासों से बचाकर एक नवीन आधार प्रदान करती है। भारतीय समाज की बनावट और बुनावट में पर्वों का अत्यंत महत्त्व है। भारतीय समाज इन पर्वों से सुदृढ़ होता है और अपनी मुख्यधारा से जुड़ा रहता है। सामाजिकता के संदर्भ में पर्व को वर्ण व्यवस्था से भी संबंधित किया जाता है। आज के परिवेश में यह संबंध अत्यंत अटपटा लग सकता है, परंतु इसका स्वरूप जितना वैज्ञानिक है, उतना ही प्रासंगिक व सामाजिक भी।

‘पृ’ धातु से वनिप् प्रत्यय लगाकर निष्पन्न पर्व शब्द ग्रंथि का सूचक हैं, परन्तु इसे उत्सव के अर्थ में निरूपित किया जाता है। धरणीकोश में पर्वपद का अभिप्राय है- पर्वं स्यादुत्सवे ग्रंथौ प्रस्तावे विषुवादिषु। दर्शप्रतिपदौ संधौ स्यात्तिथौ पंचकान्तरे॥ अर्थात् जैसे ईख अथवा बांस की गांठें कुछ समान अंतर पर निश्चित रूप से रहती हैं, उसी प्रकार भारतीय काल गणना के आधार ज्योतिषशास्त्र के अनुसार जीवन में भी किंचित अंतराल से पर्वों अथवा उत्सवों के आयोजन की व्यवस्था की गयी है।

पर्व को परंपरा से भी जोड़कर देखा जाता है। परंपरा एक प्रवाह है, जिसका प्राण विवेक है। आज परंपरा हमारे लिए एक शब्द मात्र रह गया है। इसका बाह्य कलेवर ही विकृत हो गया है, इसकी आंतरिकता मुरझा गई है। पृ धातु से अच् प्रत्यय लगाकर निष्पन्न परंपरा शब्द का तात्पर्य है, जो पर के भी परे हो अर्थात् अत्यंत श्रेष्ठ हो। जो न कभी अतीत की वस्तु बने और न कल्पना करने के लिए मात्र सुदूर भविष्य का विषय ही रह जाए, जो सदा और सदा वर्तमान की सरस ताजगी से आपूरित हो, वही परंपरा है। जो आत्मिक जीवन की जीवंत प्रक्रिया बनकर जीवन को अनुशासित नहीं, आत्मानुशासित करे, जो सदैव जन-कल्याण का उपदेश देती हुई गूढ़ बंधनों से मुक्ति के अनगिनत आयामों को विस्तृत करे, जो आंतरिक और बाह्य दोनों को संपूर्ण रूप से विकसित करे-वह परंपरा है।

वैसाख शुक्ल तृतीया का दिन भविष्य पुराण में अक्षय तृतीया के नाम से उद्धृत है। इस दिन तीर्थ में स्नान और तिलों से पितरों का तर्पण कर धर्म-घटादिकों का दान और मधूसुदन का पूजन करने का विधान है, क्योंकि वैसाख में भगवान् को तुष्टि देने वाला पूजन करने का विधान आदि काल से प्रचलित है। तुला, मकर और मेषराशि में प्रातः स्नान करना चाहिए। इसमें हविष्यान्न भोजन महापापों का नाश करने वाला है। इस व्रत के व्रती स्त्री-पुरुष, जो नियमपूर्वक प्रातः स्नान कर पूजा-अर्चना करते हैं, उनके सब पापों का नाश होने की बात पौराणिक कथा में आती है। इस दिन विधि-विधानपूर्वक स्नान करने के पश्चात् ब्राह्मणों, कुंवारी कन्याओं को भोजन कराने से भी पुण्य प्राप्त होता है।
भगवान् श्रीकृष्ण ने इस व्रत के विषय में कहा है कि इस दिन मनुष्य स्नान, जप, होम, स्वाध्याय और दान-कर्म जो भी सत्कर्म मनोयोग पूर्वक निःस्वार्थ भाव से करता है, वह सब अक्षय हो जाता है। यह कृतयुग की सबसे पहली तिथि है, इस कारण इसे युगादि तिथि भी कहते हैं। यह सब पापों के नाश करने वाली तथा सब सौभाग्यों को देने वाली है।

पौराणिक कथानुसार कुशावतीपुरी में एक क्षत्रिय था, जो दान एवं सेवा भाव के लिए प्रसिद्ध था तथा उसके पास धर्म संयुक्त अक्षय संपत्ति थी। उसने बड़ी लंबी चौड़ी दक्षिणा के साथ अनेक बड़े-बड़े यज्ञ भी करवाये। इस दौरान वे गौ, आभूषण आदि जरूरतमंदों को दान देकर उनकी सेवा, शुश्रूषा किया। अपने दानवृत्ति से अनेकों दीन-दुःखियों, अंधों को तृप्त किया। इतना करने के बावजूद भी उनका धन अक्षय था, कम नहीं होता था, क्योंकि उसने अक्षय तृतीया को श्रद्धापूर्वक जो दिया था, उसका ही फल था।
भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि को जो भी दान, हवन आदि सत्कार्य किये जाते हैं, उसका नाश नहीं होता है, इस कारण इसे अक्षय तृतीया कहा गया है। देवता और पितरों के उद्देश्य से जो भी मनोयोगपूर्वक सत्कार्य किया जाता है, वह सब अक्षय हो जाता है। विष्णु धर्मोत्तर के अनुसार वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन उपवास करके मनोयोगपूर्वक किया गया सत्कर्म का फल अक्षय रहता है। यदि यह कृत्तिका नक्षत्र युक्त हो तो सर्वाधिक श्रेष्ठ माना गया है।
( लेखक- देवसंस्कृति विवि के कुलाधिपति एवं अखिल विश्व गायत्री परिवार प्रमुख हैं।)