पति गुस्से में था, सो वह घर से निकल गया और पहुंच गया संतोबा के पास। बोला, ‘महाराज, मुझे भी अपने साथ रख लो।’ बातों ही बातों में संतोबा ने जान लिया कि ये महाशय उसी स्त्री के पति हैं। उन्होंने उसके सारे शरीर पर भभूत लगाई और एक झोली और एक टिन का बर्तन देकर उसे भिक्षा लाने भेज दिया। वह समीप के ही गांव में गया और घर-घर भिक्षा मांगने लगा। उसे देखकर लोग घर का दरवाजा बंद कर लेते। आखिर दो घरों से उसे बासी चावल, रोटी, सब्जी मिली। उसे लेकर वह संतोबा के पास पहुंचा।
संत ने उसे भिक्षा में मिला भोजन खाने को कहा, तो उसने वह भोजन खाने से मना कर दिया। संतोबा स्वयं ही वह भोजन खाने लगे और बोले, ‘ऐसा भोजन तो हम रोज करते हैं। जब तुमने घर का त्याग किया है, तो घर जैसे भोजन का भी त्याग करना पड़ेगा।’ यह सुनकर उस व्यक्ति की आंखें खुल गईं। वह बोला, ‘महाराज, यदि वैराग्य ऐसा ही होता है, तो अपनी झंझटों वाली गृहस्थी ही भली है।’ यह कहकर वह अपने घर लौट गया।– संकलन : रमेश जैन