एक बार राजा भोज एक जंगल के रास्ते से जा रहे थे। साथ में उनके राजकवि पंडित धनपाल भी थे। रास्ते में एक विशाल बरगद के पेड़ में मधुमक्खियों का एक बहुत बड़ा छत्ता लगा था। जो शहद के भार से गिरने ही वाला था।राजा भोज ने ध्यान से देखा तो पाया कि मधुमक्खियां उस छत्ते से अपने हाथ पैर घिस रही हैं। उन्होंने राजकवि से इसका कारण पूछा।
राजकवि बोले- महाराज ! दान की बड़ी महिमा है। शिवि, दधीचि, कर्ण, बलि आदि अनेक दानियों का नाम उनके न रहने के बाद भी चल रहा है।
राजकवि बोले- महाराज ! दान की बड़ी महिमा है। शिवि, दधीचि, कर्ण, बलि आदि अनेक दानियों का नाम उनके न रहने के बाद भी चल रहा है।
जबकि केवल संचय करने और दान न करने वाले बड़े बड़े राजा महाराजाओं का आज कोई नाम लेने वाला भी नहीं है। इन मधुमक्खियों ने भी आजीवन केवल संचय ही किया है, कभी दान नहीं किया।
इसलिए आज अपनी संपत्ति को नष्ट होते देखकर इन्हें दुःख हो रहा है। इसीलिए ये अपने हाथ पैर घिस रही हैं। अतः आवश्यकता से अधिक संचय हमेशा दुःख का कारण होता है।