तीर्थ यात्रा के बाद भी जब लोगों के दुर्गुण न जाएं तो सारी तीर्थ यात्रा व्यर्थ है

एक बार संत तुकाराम से मिलने उनके गांव के कुछ लोग आए। उन्होंने तुकाराम जी के प्रति सम्मान प्रकट करते हुए उनसे प्रार्थना की, ‘हमलोग तीर्थ यात्रा के लिए जा रहे हैं, आप भी हमारे साथ चलने की कृपा करें।’ तुकाराम जी ने असमर्थता प्रकट की और एक गठरी देते हुए हुए कहा, ‘इसमें कुछ ककड़ियां हैं। तुमलोग जिन तीर्थ स्थानों पर जाओ, उन स्थानों पर इन्हें नदी या तालाब में डुबा कर स्नान करवा देना। फिर इसे वापस ले आना।’ तीर्थ यात्रा के दौरान उन लोगों ने वैसा ही किया। वे भगवान का स्मरण करते हुए जिस नदी में स्नान करते, उस पोटली में बंधी हुई ककड़ियों को भी डुबाकर निकाल लेते। तीर्थयात्रा से गांव लौटकर उन्होंने तुकाराम जी को ककड़ियों की पोटली लौटा दी।

तुकाराम जी ने उन सब को दूसरे दिन भोजन के लिए अपने घर आमंत्रित किया। तुकाराम जी ने उन ककड़ियों की सब्जी बनवाई और उसे भोजन में परोसा। भोजन करने के बाद सब एक ही स्थान पर बैठ गए। तुकाराम जी ने पूछा, ‘तुमलोगों ने ककड़ियों को इतने तीर्थ स्थानों पर स्नान करवाया। उसके कड़वेपन में कोई फर्क पड़ा? उन्होंने उत्तर दिया, ‘नहीं महाराज, ककड़ियों के कड़वेपन में कोई अंतर नहीं आया।’

तुकाराम जी ने उन्हें समझाते हुए कहा, ‘इतने तीर्थ स्थानों पर स्नान करके, इतने मंदिरों में जाकर भी ककड़ियां कड़वी ही रहीं। ककड़ियों ने कड़वेपन का सहज गुण त्यागा नहीं। इसी प्रकार तीर्थ यात्रा करने के बाद भी लोग वैसे के वैसे बने रहते हैं। तीर्थ यात्रा करने पर भी जब लोगों के दुर्गुण छूटे ही नहीं, तो सारी तीर्थ यात्रा व्यर्थ है। तीर्थ यात्रा से मनुष्य की बुद्धि का विकास होना चाहिए। उसके मन में परिवर्तन आने चाहिए। उसे शुद्ध और निर्मल बनाने के लिए ही तीर्थ यात्राएं रखी गई हैं। किंतु लोगों ने तीर्थ यात्रा को विनोद यात्रा में परिवर्तित कर दिया है, जो सही नहीं है।’

संकलन : दीनदयाल मुरारका