इस घटना के कुछ समय बाद पुणे नगरपालिका में यह प्रस्ताव लाया गया कि शहर में सवा तीन लाख रुपये की लागत से एक बाजार बनवाया जाए। ज्योतिबा ने सुझाव दिया कि यह सारी धनराशि गरीबों और दलितों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार में खर्च की जाएं। बाजार से ज्यादा जरूरत है कि उनका जीवन स्तर ऊपर उठाया जाए। मगर नगरपालिका ने उनका प्रस्ताव नहीं माना। अब ज्योतिबा फुले ने एक और सुझाव दिया। उन्होंने कहा, ‘बाजार में इसके लिए इमारत कम से कम रुपयों में बनाई जाएं और जो दुकानें बनें, उन्हें कम से कम किराए में गरीब दुकानदारों को दिया जाए।’ ज्योतिबा के विरोध के कारण ही कुल बजट में से एक लाख कम कर दिया गया। ज्योतिबा ने कहा कि इन रुपयों को दलितों की शिक्षा पर खर्च किया जाए।
खैर, इमारत बननी शुरू हो गई। जब इमारत बन गई तो नगरपालिका के अधिकारी चाहते थे कि इमारत का नाम एक अंग्रेज गवर्नर के नाम पर रखा जाए। ज्योतिबा फुले भला ऐसे कैसे होने देते। वह खुद भारत की आजादी के संघर्ष के लिए सशस्त्र ट्रेनिंग लेकर आए थे। ज्योतिबा ने तुरंत इसका विरोध कर दिया। नगरपालिका के अधिकारी नाराज तो बहुत हुए, मगर कर कुछ भी नहीं पाए। आज यह बाजार पुणे में महात्मा फुले मार्केट के नाम से जाना जाता है। – संकलन : गोपाल सिंह