(डॉ. प्रणव पण्ड्या)
गंगा और गायत्री दोनों ही देव संस्कृति के ज्ञान विज्ञान की पुण्यधाराएं हैं। इन दोनों में भारतमाता की दिव्य चेतना समायी है। इनमें देव भूमि और दिव्य भूमि भारत के पुरातन ऋषियों के महातप का प्रखर परिचय सन्निहित है। तप की पुण्य परंपरा में भागीरथ सूर्यवंश की पीढ़ी में अवतरित हुए। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी की इसी पुण्यवेला में ब्रह्मर्षि विश्वामित्र के तप को भी पूर्णता मिली। भागीरथ की महासाधना ने माता गंगा के अवतरण को संभव साकार किया। गंगा की लहरों ने भारत देश की चेतना में नवप्राण भरे। राजस स्वभाव वाले महाराज विश्वरथ ब्रह्मर्षि विश्वामित्र बने। आदिशक्ति माता गायत्री उनके अंतः करण में अवतरित होकर युग शक्ति के रूप में भारतमाता की सम्पूर्ण चेतना में संव्याप्त हो गई। इस तत्त्वज्ञान को परम पूज्य गुरुदेव पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने जन-जन के अंतर में उतार दिया।
गंगा के जलकणों और गायत्री के मंत्र अक्षरों में ज्ञान-विज्ञान के सभी तत्त्व समाए हैं। ज्ञान-विज्ञान का मूलस्रोत होने के कारण ही तो गायत्री वेदमाता कहलाई। वेदों में निहित समस्त ज्ञान-विज्ञान बीजरूप में गायत्री मंत्र में विद्यमान है। तमाम देवशक्तियां इसी महाशक्ति की धाराएं हैं। उनका प्रादुर्भाव इसी से हुआ है और वे इसी से पोषण पाती हैं। इस रूप में गायत्री देवमाता हैं। इतना ही नहीं समूचे विश्व की उत्पत्ति इसी गर्भ से हुई है, यही कारण है कि गायत्री विश्वमाता भी हैं।
वेदमाता, देवमाता एवं विश्वमाता की इन त्रिविध शक्तिधाराएं में सृष्टि संचालन की समस्त प्रक्रियाएं संचालित होती हैं। यही सृष्टि की मूल शक्ति हैं। इन्हें त्रिपदा भी कहते हैं। सत्, रज एवं तम इन तीनों गुणों के आधार पर यह सरस्वती, लक्ष्मी एवं काली कहलाती हैं, जो क्रमशः सद्बुद्धि, समृद्धि एवं शक्ति की अधिष्ठात्री शक्तियां हैं। ह्रीं, श्रीं, क्लीं के रूप में ये बीज शक्तियां दुर्गासप्तमी का मूल रहस्य हैं। उत्पत्ति, पोषण एवं परिवर्तन की पुरुषवाचक शक्तियों के रूप में यही ब्रह्मा, विष्णु और महेश कहलाती है। अपनी प्राणरक्षक क्षमता के कारण इनका नाम गायत्री पड़ा है। व्यक्ति में सद्बुद्धि एवं सद्भाव जगाने वाली यह महाशक्ति वस्तुतः धरती की कामधेनु है। कामधेनु वह, जिसके पायदान मात्र से ही दुःख संताप और अभाव तिरोहित होते हैं, नष्ट होते हैं और जीवन में सुख, शांति एवं समर्थता की सामर्थ्य भर जाती है।
गायत्री महाशक्ति को ऋतंभरा प्रज्ञा भी कहा जाता है। ऋतंभरा उसे कहते हैं, जिसमें विवेक और श्रद्धा का संगम होता है, विचार और भावना पनाह पाते हैं। विवेक, तर्क, तथ्य, प्रमाण सहित विवेचना करने वाली दूरदर्शिता का नाम है। इस प्रकार विवेक-श्रद्धा से युक्त प्रज्ञा तथा विचार भाव से संयुग्मित दिव्य प्रवाह ही युगशक्ति गायत्री है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण ही इसे भारतीय संस्कृति की गरिमामयी जननी होने का गौरव प्राप्त है। भारतीय जीवन से जब भी गायत्री के तत्त्वज्ञान का विलोप हुआ, विलगाव हुआ, यहां की संस्कृति पतन-पराभव के गर्त में जा गिरी। इसके तत्त्वज्ञान उन्नयन में ही भारत की संस्कृति एवं सभ्यता का उन्नयन-उत्थान समाया रहा है।
पूज्य पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने तप के भागीरथी पुरुषार्थ से गायत्री की विलुप्त शक्तियों को फिर से जनसुलभ बना दिया है। गायत्री महाविद्या एवं इसके तत्त्वज्ञान को जन-जन के अंतःकरण में उतार देने के लिए वे संकल्पित हुए। उनका स्वयं का समूचा जीवन गायत्रीमय था। अनवरत गायत्री साधना की निष्ठा ने उन्हें तपोनिष्ठ बनाया और वे वेदमाता के वरद पुत्र होकर वेदमूर्ति के रूप में प्रतिष्ठित हुए। यही साधना जीवन को परिष्कृत, परिमार्जित कर चेतना की महायात्रा में आगे बढ़ने में सहायक हो सकती है। मनुष्य में देवत्व का उदय इसी साधना से ही संभव है। धरती को स्वर्ग बनाने के लिए देवमानवों की आवश्यकता है। यही देवमानव गायत्री साधना की महान ऊर्जा से धरती को स्वर्ग बनाने में सक्षम समर्थ हो सकेंगे।
पूज्य आचार्यश्री ने अपने आराध्य से एकाकार होने के लिए गायत्री जयंती को चुना और उस ब्राह्मीचेतना में समा गए। आचार्यश्री का संदेश है- ‘तुम तप कर सकते हो भागीरथ की तरह, विश्वामित्र की तरह। तुम्हारे तप में देश की समृद्धि है, तुम्हारे तप से ही देश की संस्कृति है। भागीरथ और विश्वामित्र के वंशजो! जागो, उठो और महातप से ही गंगा की जलधारा निर्मल होगी। महातप से ही माँ गायत्री की साधना वरदायिनी सिद्ध होगी।’
लेखक- अखिल विश्व गायत्री परिवार के प्रमुख एवं देवसंस्कृति विवि के कुलाधिपति हैं।