जानिए आखिर वेश्यालय की मिट्टी से क्यों होती है देवी प्रतिमा का निर्माण

दुर्गा, हमारी अंतर्चेतना की उस परम क्षमता का नाम है, जो हमारी कर्मजनित दुर्गति को आमूलचूल नष्ट करने की ऊर्जा से लबरेज है। यह पर्व शक्ति को बाहर पंडालों में स्थापित करने से अधिक अपनी बिखरी हुई ऊर्जा को स्वयं में समेटने, सहेजने और संचरण का है। पर नवरात्र में देवी की प्रतिमा की स्थापना पूर्णत: वैज्ञानिक है, जो जगत में सामाजिक सुधारों की पताका लिए किसी मिशन के मानिंद नजर आती है।

यूं तो दुर्गापूजा के वर्तमान उत्सव स्वरूप के सूत्र बंग भूमि में छिपे नजर आते हैं, पर इसका विस्तार संपूर्ण दक्षिण एशिया में दृष्टिगोचर होता है। ग्रंथों में दुर्भाग्य के उन्मूलन हेतु प्राचीन काल में अहोरात्रि के नाम से प्रचलित आज के नवरात्र में शक्ति की वैज्ञानिक पूजा का उद्धरण प्राप्त होता है, जिसमें पूजन के लिए विशिष्ट प्रतिमा के निर्माण का उल्लेख मिलता है। इसके समक्ष मंत्रजाप और सप्तशती का सस्वर पाठ कर्ण से मस्तिष्क में प्रविष्ट होकर, अपार मानसिक बल और आत्मविश्वास का कारक बनते हैं। हमारे विराट आभामंडल का निर्माण करते हैं। शारदातिलकम, महामंत्र महार्णव, मंत्रमहोदधि जैसे ग्रंथ और कुछ पारंपरिक मान्यताएं इसकी पुष्टि और संस्तुति करती हैं।

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प्रतिमा में वेश्यालय की मिट्टी का प्रयोग
बांग्ला मान्यताओं के अनुसार गोबर, गोमूत्र, लकड़ी व जूट के ढांचे, धान के छिलके, सिंदूर, विशेष वनस्पतियां, पवित्र नदियों की मिट्टी और जल के साथ ‘निषिद्धो पाली के रज’ के समावेश से निर्मित शक्ति की प्रतिमा और यंत्रों की विधि पूर्वक उपासना को लौकिक और पारलौकिक उत्थान की ऊर्जा से सराबोर माना गया है। निषिद्धो पाली वेश्याओं के घर या क्षेत्र को कहा जाता है। कोलकाता के कुमरटली इलाके में भारत की सर्वाधिक देवी प्रतिमाएं बनती हैं। इनमें ‘सोनागाछी’ की मिट्टी का इस्तेमाल होता है। यह देह व्यापार का गढ़ है। तंत्र शास्त्र में निषिद्धो पाली के रज के सूत्र काम और कामना से जुड़े हैं। तंत्र यानी प्राचीन विज्ञान। दैवी प्रतिमा में निषिद्धो पाली की मिट्टी के प्रयोग की परंपरा स्वयं में सामाजिक सुधार के सूत्र भी सहेजे दिखाई देती है। यह परंपरा पुरुषों की भूल की सजा भुगतती स्त्री के उत्थान और सम्मान की प्रक्रिया का हिस्सा भी प्रतीत होती है।

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देवी को चक्षु दान
महालया पर देवी की अनगढ़ प्रतिमा को नेत्र प्रदान किए जाते हैं। यह प्रक्रिया चक्षु-दान कहलाती है और यहीं से पूजा के पर्व का आगाज माना जाता है। कहते हैं कि देवी अपने साथ गणपति, कार्तिकेय को लेकर महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के विराट स्वरूप में 10 दिवस के लिए पति को कैलाश पर छोड़ कर पीहर आती है।– सद्‌गुरुश्री स्वामी आनंदजी