एक बार की बात है। महाराष्ट्र के महान संत तुकाराम ज्ञानदेव के दर्शन के लिए आलंदी जा रहे थे। रास्ते में एक जगह उन्होंने पेड़ के नीचे पक्षियों को दाना चुगते देखा। लेकिन जैसे ही तुकाराम सामने पहुंचे, उनको देखते ही पक्षी उड़ गए। इससे तुकाराम का मन व्यथित हो गया। उस वक्त उनके मुंह से एक अभंग निकला, जिसमें उनका कहना था कि मेरी ऐसी द्वंद्व रहित स्थिति होनी चाहिए कि मेरे प्रति किसी को थोड़ा भी शक न हो, मुझसे किसी को जरा भी भय न लगे।
तुकाराम वहीं खड़े होकर गाते-गाते अभंग के जरिए कहने लगे, ‘हे पांडुरंग, आप मुझ पर इतनी कृपा करिए कि इस संसार में जिस-जिस से मेरी भेंट हो, वह मुझे मेरा ही स्वरूप लगे।’ काफी देर तक तुकाराम ईश्वर वंदना करते रहे, लेकिन पक्षी वापस नहीं आए। अब तुकाराम का मन और भी व्यथित हो चला। खुद से उन्होंने कहा, ‘अगर परमात्मा से नहीं डरते, वृक्ष से नहीं डरते, फूलों और छोटे-छोटे पौधों से नहीं डरते तो ये पक्षी मुझसे क्यों डरते हैं? ईश्वर ने मुझे सबसे प्रेम करने के लिए इस संसार में भेजा है, ना कि किसी को डराने के लिए।’
कुछ देर बाद तुकाराम को एक आइडिया आया। उन्होंने अपनी सांसें रोक लीं और उसी जगह पर बिलकुल वैसे ही शांत और स्थिर खड़े हो गए, जैसे कि तपस्वी वन में तपस्या करते समय खड़े होते हैं। वह बार बार ईश्वर का स्मरण करते, लेकिन उस जगह से तृण भर भी नहीं हिले। जब तक पक्षी मेरे प्रति निर्भय नहीं बनेंगे, तब तक मैं यहां से नहीं हटूंगा- ऐसा उनका निश्चय था। आखिर डेढ़-दो घंटे के बाद सारे पक्षी उनका प्रेममय आत्मभाव देख कर पहले तो अपनी-अपनी जगह आए, फिर उनके कंधों पर आकर पूरी निर्भयता से खेलने लगे। यह देख कर तुकाराम बोले, ‘ईश्वर भी उसी की सुनता है, जो ईश्वर के बंदों की भक्ति करता है।’
संकलन : सुमन दुबे