जब गांधीजी की इस बात से ब्रिटिश अधिकारी का मन हो गया शुद्ध

दिसंबर 1920 में गांधीजी बंगाल भ्रमण पर थे। नारायणगंज से गोलंदो लौटते समय स्टीमर पर उनकी भेंट दो बैरिस्टरों से हुई। उनमें एक अंग्रेज और दूसरा भारतीय था। दोनों असहयोग आंदोलन पर बातें कर रहे थे। भारतीय बैरिस्टर ने पूछा, ‘असहयोग का तात्कालिक उद्देश्य तो अन्याय का विरोध करना ही है न?’ गांधीजी बोले, ‘नहीं। विरोध नहीं, शुद्धिकरण। हमारे अपने शुद्धिकरण द्वारा विरोधी का शुद्धिकरण।’ अंग्रेज बोला, ‘क्या आप ऐसा कुछ शुद्धिकरण कर सके?’

गांधी जी बोले, ‘देश भ्रमण में लोगों को निग्रह और स्वावलंबन सीखते देखकर मैं चकित हूं। किसान भी ये सब सीख रहे हैं। ब्रिटिश अधिकारियों के मन भी स्वच्छ हो रहे हैं।’ अंग्रेज ने पूछा, ‘और इस शुद्धिकरण से आप अंग्रेजों के व्यवहार में क्या परिवर्तन लाना चाहते हैं?’ गांधीजी बोले, ‘मैं ऐसी स्थिति उत्पन्न करना चाहता हूं जिससे प्रत्येक अंग्रेज, हिंदुस्तानी को भी अपने जैसा समझे। मैं चाहता हूं कि वे भारतीयों की अवहेलना न करें। उन्हें बराबरी का हिस्सेदार समझें। अंग्रेज और भारतवासी- दोनों में समानता का यही भाव हो, तो हमारे देश को तुरंत स्वराज मिल जाएगा।’

अंग्रेज बोला, ‘आपकी यह चाह उचित ही है। और यह भी सही है कि कोई अंग्रेज जमींदार अपने किसानों के साथ जैसा व्यवहार करता है, वैसा ही अंग्रेज इस देश के मजदूरों के साथ भी करें। आज से मैं भी ऐसा ही करूंगा।’ यह सुनकर गांधीजी बहुत प्रसन्न हुए और बोले, ‘मेरे कहने का तात्पर्य यही है। जीवन में त्याग का बड़ा महत्व है। मगर उससे ज्यादा महत्व मन की शुद्धि का है। मन में जब शुद्घि होगी, तो त्याग खुद होने लगेगा। तुम्हारे मन में शुद्धि आ चुकी है।’ इतने में दूसरा बैरिस्टर बोला, ‘मगर बापू, अपने यहां भी बहुतों को मन की शुद्धि की जरूरत है!’ यह सुनते ही गांधीजी समेत सभी ठठाकर हंस पड़े।

संकलन : सुभाष चन्द्र शर्मा