जब एक बच्चे को पढ़ने से मना किया और बना दिया देश का भविष्य

संकलन: बेला गर्ग
बालक भीमराव सकपाल की पढ़ने की बड़ी इच्छा थी। पिता उसकी इच्छा तो समझते थे, मगर पता नहीं क्यों उसे स्कूल में दाखिला दिलाने से हिचकते थे। आखिर एक दिन उनसे नहीं रहा गया। सोचा जो होगा सो होगा, जब बच्चे की इतनी इच्छा है तो एक बार कोशिश करके तो देख ही लेना चाहिए। बालक भीमराव का स्कूल में दाखिला तो हो गया, मगर जब वह क्लास में पहुंचा तो उसे बैठने ही नहीं दिया गया। काफी जद्दोहजद के बाद जगह मिली तो सबसे पीछे।

भीमराव ने इससे अपने मनोबल को कम नहीं होने दिया। उसे पता था कि आगे बैठे या पीछे, कक्षा में गुरुजी जो भी बोलेंगे वह बाकी विद्यार्थियों की तरह ही उसे भी सुनाई देगा। थोड़ी देर बाद उसे प्यास लगी। बाकी बच्चों की तरह वह भी उस जगह पर पहुंचा जहां सार्वजनिक घड़ा रखा था। मगर भीमराव को बताया गया कि वह घड़े को छू भी नहीं सकता। वजह यह बताई गई कि उसका जन्म ऐसी जाति में हुआ है जो अछूत मानी जाती है। इस घटना ने बालक भीमराव को अंदर तक आंदोलित कर दिया। उसने तय कर लिया कि जन्म के आधार पर इस तरह का भेदभाव बर्दाश्त करने लायक चीज नहीं है। मगर उसे यह भी पता था कि समस्या सिर्फ उसके साथ नहीं है। देश में करोड़ों लोग हैं जो उसी की तरह जाति-पांति के आधार पर अमानवीय व्यवहार सहन कर रहे हैं।

इस अहसास ने भीमराव को सामान्य बालक नहीं रहने दिया। उस दिन के बाद से भीमराव ने खुद को इस व्यापक, विशाल अछूत समाज का प्रतिनिधि मान लिया और राह में आने वाली ऐसी हर बाधा को ताकत बनाते हुए आगे बढ़ने लगा। नतीजा यह कि यही भीमराव सकपाल आगे चलकर डॉ. भीमराव आंबेडकर के नाम से मशहूर हुए जिन्होंने आजादी के बाद भारत के संविधान का प्रारूप तैयार किया।