कोरोना काल में रवींद्रनाथ टैगोर और आइंस्टाइन की इस बहस ने फिर लिया जन्म

संकलन: सतीश जाटव
बात 14 जुलाई 1930 की है। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टाइन से बर्लिन के पास कापुथ गांव में मिले। तब रविबाबू को जर्मनी में मानव-धर्म पर बोलने के लिए ऑक्सफर्ड विश्वविद्यालय ने बुलाया था। मिलने पर आइंस्टाइन ने गुरुदेव से पूछा, ‘क्या दुनिया से अलग कोई दैवी शक्ति होती है?’ इस सवाल पर टैगोर तुरंत बोले, ‘अलग नहीं। संसार में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे इंसान के व्यक्तित्व में शामिल नहीं किया जा सकता। इस दुनिया का सत्य असल में मानवीय सत्य ही है।’

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आइंस्टाइन ने कहा कि आप जो कह रहे हैं, वह दुनिया के बारे में पूरी तरह से मानवीय धारणा है। मगर विज्ञान इसके परे जाकर भी सोचता है। आइंस्टीन के यह कहने पर गुरुदेव मुस्कुराए और बोले, ‘जैसे कोई चीज प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन से मिलकर बनती है, लेकिन उसके बीच में एक खाली जगह भी होती है, जो इन्हें जोड़ती है। वैसे ही मानवता व्यक्तियों का समूह होती है, लेकिन मानवीय संबंध इसे आपस में जोड़े रखते हैं। पूरी दुनिया हर एक शख्स के साथ जुड़कर मानवीय होती है।’

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इस पर आइंस्टाइन बोले, ‘तब तो इंसान से अलग कुछ भी नहीं है!’ गुरुदेव ने कहा, ‘बिलकुल, हम सबसे अलग कोई दुनिया नहीं है। सच यही है कि इस दुनिया से इतर किसी और दुनिया का अस्तित्व नहीं है।’ रविबाबू के इस जवाब पर थोड़ा सोचते हुए आइंस्टाइन बोले, ‘मानवीयता के बारे में मैं आपसे सहमत हूं, लेकिन जिसे आप सच कह रहे हैं, उसे मैं नहीं मानता।’ गुरुदेव और आइंस्टाइन के बीच इस विषय पर आगे भी बहस होती रही और दोनों अपनी-अपनी बात पर टिके रहे। आज कोरोना काल में जिस तरह से मानव और विज्ञान एक-दूसरे का मुंह देख रहे हैं, उन दोनों की यह बहस एक बार फिर से जिंदा दिखने लगी है।