कन्फ्यूशियस ने इस तरह महात्मा को बताया साधना का ज्ञान

संकलन: दीनदयाल मुरारका
कन्फ्यूशियस पदयात्रा पर निकले थे। रास्ते में एक महात्मा को पेड़ की छाया में विश्राम करते देखकर पूछा, ‘महात्मा! नगर छोड़कर यहां एकांत में क्यों पड़े हैं?’ महात्मा ने उत्तर दिया, ‘इस राज्य का राजा अत्याचारी, कुटिल और दुष्ट है। प्रजा भी राजा को देखकर वैसी ही बनती जा रही है। ऐसे वातावरण में रहना कठिन हो गया था। इसलिए मैं यहां आ गया। यहां किसी तरह की चिंता नहीं है।’ कन्फ्यूशियस मुस्कराए और बोले, ‘थोड़ी सी बुराई या बुरे व्यक्तियों के कारण आप नगर छोड़कर चले आए। बुराई के आगे हार मान लेना तो आपका पलायनवाद है।’ महात्मा ने कहा, ‘ठीक है, मगर इतनी परेशानियों की अपेक्षा बुराई के मार्ग से हट जाना बेहतर नहीं है क्या? हम बुराई से हटकर अच्छाई का आनंद क्यों न लें?’

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कन्फ्यूशियस ने कहा, ‘आपकी शांति आपके पास है। वह छीनी नहीं जा सकती। फिर आप यहां रहकर भी उसी समाज के आश्रय में पल रहे हैं, जिस समाज को आप भला-बुरा कह रहे हैं। क्या यह कृतघ्नता न होगी कि समाज को सुधारने की बजाय आप मुख मोड़कर जंगल में भाग आएं? आप भागकर साबित कर रहे हैं कि सद‌्गुण दुर्गुण से दुर्बल है, सत्य असत्य की अपेक्षा निर्बल है, ज्ञान पर अज्ञान ने कब्जा कर लिया है।’

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महात्मा बोले, ‘मैं यहां सद‌्गुणों की ही रक्षा कर रहा हूं, बुराइयों की ओर से आंखें मूंदकर। आप ही बताइए, क्या मैं भलाई को बुराई का ग्रास होने से नहीं बचा रहा हूं?’ कन्फ्यूशियस ने कहा, ‘आप एकांत में साधना कर अपने को तो बचा लेंगे, पर क्या एक साधक का इतना ही कर्तव्य है? क्या समाज की व्यापक जनमानस की मुक्ति की बात नहीं सोचनी चाहिए? इसी में तो उसकी साधना की सार्थकता है।’ महात्मा को अपनी भूल का अहसास हो गया और वह वापस नगर की ओर चल पड़े।