ओशो इंटरव्यू

ओशो रजनीश (11 दिसंबर 1931 – 19 जनवरी 1990) के कल जन्मदिन पर विशेष

ओशो शैलेन्द्र आध्यात्मिक गुरु और महान विचारक ओशो रजनीश के छोटे भाई हैं। 17 जून 1955 को जन्मे ओशो शैलेन्द्र ओशो रजनीश से करीब 24 साल छोटे हैं। इन्होंने सन 1971 में ओशो से दीक्षा ली। फिर 1978 में MBBS पास की। इसके बाद 1981 तक ओशो कम्यून, पुणे में रहे, फिर 1985 तक रजनीशपुरम, ओरेगांव, अमेरिका में। बाद में एक कंपनी में चीफ मेडिकल ऑफिसर की भी नौकरी की। आजकल ओशो शैलेन्द्र मुरथल (हरियाणा) स्थित ओशोधारा आश्रम के जरिए ओशो के संदेश को फैलाने का काम कर रहे हैं। पेश हैं उनसे राजेश मित्तल की बातचीत के खास हिस्सेः

Q. ओशो ने विभिन्न धर्मों, धर्मग्रंथों और महापुरुषों पर हजारों प्रवचन दिए हैं जो ढेर सारी किताबों, ऑडियो और विडियो के रूप में उपलब्ध हैं। आपके हिसाब से ओशो का संदेश सार रूप में क्या है?

A. ओशो का एक प्रवचन है: मरो हे जोगी मरो। यह संत गोरखनाथ पर है। इसमें किसी ने पूछा है कि संत गोरखनाथ का मूल संदेश क्या है। ओशो कहते हैं, जो गोरखनाथ का संदेश है वही मेरा संदेश है। वही सभी संतों का भी संदेश है। कोई अलग-अलग संदेश नहीं है। मूल बात एक ही है – ओंकार का ज्ञान। हमारी आत्मा के भीतर ओम् की ध्वनि गूंज रही है। उसे जान लेना आत्मज्ञान है और यही समस्त संतों का मूल संदेश है।

Q. जीवन कैसे जिया जाए या जीवन का उद्देश्य क्या हो – इस बारे में ओशो ने जो कुछ कहा है, उसका निचोड़ बताएंगे?

A. ऐल से शुरू होने वाले अंग्रेजी के पांच शब्दों को लें – लिव, लाफ, लव, लिसन और लुक। इन पांच शब्दों को पकड़ लें तो सारी बातें आ जाएंगी।

पहला सूत्र है लिव। हमें पुराने ग्रंथों ने सिखाया कि ईश्वर आसमान में बैठा है। वही हमारे जीवन को चलानेवाला है। ओशो कहते हैं नहीं, यह जीवन ही ईश्वर है। जीवन को ही सम्मानपूर्वक जिएं तो हमारी पूजा हो जाती है। जीवन से प्यार किया तो हमारी आराधना हो गई। किसी मंदिर या मस्जिद जाकर पूजा करने की जरूरत नहीं। जीवन को सम्मानपूर्वक जिएं, आनंदपूर्व जिएं, यही पहला सूत्र है।

दूसरा है लाफ। हंसते, खेलते, नाचते हुए कलात्मक ढंग से अपने जीवन को जिओ। पुराने धर्मों ने जीवन को बहुत गंभीर बना दिया है। त्याग और तपस्या न जाने कई गंभीर-गंभीर बातें बीच में ले आए। दुख और उदासी का सम्मान हो गया। लेकिन ओशो कहते हैं: हंसो और मुस्कुराओ। नाचो, गाओ, खेलो। जीवन एक लीला है, इसका आनंद लो।

तीसरा है लव। प्रेम जीवन का अति महत्वपूर्ण बल्कि केंद्रीय बिंदु है। हमारे पुराने ग्रंथों ने प्रेम के विरोध में शिक्षा दी। प्रेम की खिलाफत की। प्रेम की निंदा और आलोचना की। लेकिन ओशो कहते हैं कि जीवन को अत्यंत प्रेमपूर्वक जिओ। प्रेम के दूसरे रूप हैं- ममता, करुणा, दया, श्रद्धा औार भक्ति। प्रेम ही बढ़ते-बढ़ते भक्ति बन जाता है। भक्ति का मतलब पूरा अस्तित्व से अपनापन।

अगला है लिसन और लुक। इसका मतलब है कि अपने भीतर सुनो और देखो। यहां से अध्यात्म की साधना शुरू होती है। अंत:श्रवण और अंत:दर्शन। अभी मैंने आपसे कहा था कि हमारे भीतर ओंकार की ध्वनि गूंज रही है, ठीक इसी तरह हमारे भीतर प्रभु का प्रकाश भी छाया हुआ है। जब हम ध्यान में डूबते हैं, साधना करते हैं, अपने भीतर देखते हैं, सुनते हैं तो शुरुआत में कुछ दिखाई नहीं पड़ता, कुछ सुनाई नहीं पड़ता। सब अंधेरा जैसा जान पड़ता है। लेकिन अगर हम संवेदनशील होकर कोशिश करते जाएं, करते जाएं तो धीरे-धीरे एक समय आता है जब विचारों का शोरगुल भीतर बंद हो जाता है, मन शांत हो जाता है और तब हमें अपने भीतर एक अद्भुत ध्वनि सुनाई पड़ती है जिसे परमात्मा की वाणी या ओंकार की ध्वनि कह सकते हैं। साथ ही हमें एक बड़ा सूक्ष्म प्रकाश नजर आता है। जब भी यह दिखाई-सुनाई पड़ने लगता है फिर हमारा ध्यान धीरे-धीरे समाधि बनने लगता है। हम बहुत गहराई में चले जाते हैं। इस तरह पांच एल में ओशो की बात सार-संक्षेप में आ जाती है।

Q. ध्यान और समाधि में क्या फर्क है?

A. ध्यान शुरुआत है और समाधि उसका अंत।

Q. समाधि से मतलब हम यह लगाते हैं कि कोई साधु महीनों-बरसों तक एक ही जगह बैठकर तपस्या कर रहा है, उस पर दीमक की बांबी लग गई है।

A. पुराने जमाने में साधु लोग ऐसी समाधि लगाते थे। यह अति है। ओशो कहते हैं: बीच में रहो, सम्यक रहो, मध्यमार्ग अपनाओ। 24 घंटे में 1 घंटा समाधि बहुत है। समाधि असल में अपने भीतर के ओंकार में और आलोक में डुबकी लगाने का नाम है। ओशो जो समाधि सिखाते हैं, वह सम्यक समाधि है। उनका कहना है कि संसार में भी जीना है, नौकरी या कारोबार भी करना है और परिवार का पालन-पोषण भी। ऐसे में उस तरह की समाधि के लिए नहीं कह सकते कि पहाड़ पर जाकर बरसों तक बैठ जाओ जिससे कि दीमक लग जाए।

Q. हर ध्यान समाधि में तब्दील हो, क्या ऐसा जरूरी है?

A. नहीं, इसे तीन हिस्सों में बांट कर समझें: ध्यान, समाधि और सम्बोधि। ध्यान का मतलब सामान्य से अधिक होश में होना। समाधि का मतलब भीतर ओंकार और आलोक में डुबकी लगाना। सम्बोधि का मतलब हुआ – अपने भीतर जिस परमात्मा को जानना, उसके साथ एक हो जाना। सम्बोधि में पता चलता है कि मैं जिस परमात्मा का ध्यान कर रहा हूं, मैं बिल्कुल वही हूं। सम्बोधि आत्मज्ञान की घटना को कहते हैं।

Q. समाधि से सम्बोधि तक की यात्रा में कितना समय लग जाता है?

A. ऐसा कुछ सुनिश्चित नहीं। भीतर के जगत में कुछ चीजें हमारे हाथ में हैं और कुछ परमात्मा के हाथ में। इसमें ऐसा नहीं है कि मैंने इतने घंटे साधना कर ली, ध्यान कर लिया तो मुझे सम्बोधि की प्राप्ति हो जाएगी और अब हमें परमात्मा मिल जाना चाहिए। अगर ऐसा होने लगे, फिर तो परमात्मा भी बंधन में हो गया। फिर तो वह भी मुक्त नहीं है। हमें जो कुछ भी मिलता है, वह प्रभु प्रसाद है। हमारा उस पर कोई अधिकार नहीं बनता।

Q. यह कैसे पता चलता है कि अमुक आदमी सम्बोधि प्राप्त कर चुका है?

A. किसी को बताने की जरूरत ही क्या है! मेरे भीतर की बात मैं जानता हूं। आपके भीतर की बात आप जानते हैं। किसी को मतलब भी क्या है इससे।

Q. लेकिन बहुत सारे लोग तो इस तरह का दावा करते हैं और सम्बोधि बांटने लगते हैं।

A. दूसरों को सम्बोधि का पता चल ही नहीं सकता। भीतर की बात का मतलब ही है कि अंदर कुछ नहीं पहुंच सकता, बाहर उसका कोई सबूत नहीं होता। वैसे जिस व्यक्ति को सम्बोधि की प्राप्ति हो जाएगी, वह दूसरे तामझाम में क्यों पड़ेगा।

Q. क्या आत्मा का अस्तित्व है?

A. मेरी अंगुली सब कुछ छू सकती है लेकिन खुद को नहीं। मेरी आंखें सब कुछ देख सकती हैं, बस खुद को नहीं। इतना तो आप मानते हैं कि कोई देखनेवाला है। आत्मा का मतलब होता है स्वयं का होना। मतलब मैं। मैं से आप इनकार नहीं कर सकते क्योंकि इनकार करने के लिए भी मेरा होना जरूरी है।

Q. ओशो का मानना था कि दुनिया किसी ने बनाई या खुद बन गई?

A. ओशो ने इस तरह के दार्शनिक सवालों का कभी जवाब नहीं दिया। वह इसको व्यर्थ की बकवास कहते हैं। दार्शनिक सवालों का कोई अंत ही नहीं है। यह प्रश्न करोड़ों साल से चल रहा है और इसका आज तक कोई उत्तर नहीं मिला।

Q. ईश्वर है?

A. इसके दो उत्तर देने पड़ेंगे मुझे। व्यक्तिवाची ईश्वर नहीं है। लोग समझते हैं – कोई ऊपर बैठा है, दुनिया चला रहा है और हमारी प्रार्थना सुनेगा। असल में ऐसा कोई ईश्वर नहीं है। लेकिन जीवन का एक परम ऐश्वर्य है और उसी से ईश्वर शब्द बना है। उसी से दुनिया चल रही है। भगवान नहीं है, लेकिन भगवत्ता है। व्यक्तिवाची ईश्वर नहीं है, लेकिन समष्टिगत भगवत्ता है। यह सारा जग भगवत्ता से ओत-प्रोत है।

Q. इसका मतलब कोई शक्ति तो है जो दुनिया को चला रही है?

A. शक्ति न कहकर हम नियम कह सकते हैं, जैसे गुरुत्वाकर्षण का नियम है।

Q. ओशो का पुनर्जन्म में विश्वास है?

A. बिल्कुल है। ओशो ने खुद अपने पिछले जन्म की घटनाएं सुनाई हैं।

Q. ज्योतिष पर ओशो का नजरिया?

A. दुनिया में जो चल रहा है, वह तो लूट है लेकिन ज्योतिष के कुछ गहरे रहस्य भी हैं। इस पर ओशो ने दो प्रवचन दिए हैं। इन दोनों प्रवचनों पर आधारित एक किताब छपी है- मैं कहता आंखन देखी। इसमें ज्योतिष पर विस्तार में चर्चा है। बाजार में जिस तरह का ज्योतिष चल रहा है, ओशो उसके पक्ष में नहीं हैं।

Q. ज्योतिष अगर है तो इसका मतलब जिंदगी में सबकुछ पहले से तय होता है?

A. कुछ चीजें तय होती हैं और कुछ संयोगवश होती हैं। यह दोनों चीजें हमारे वश से बाहर होती हैं। हम पूरी तरह न तो आजाद हैं और न ही बंधन में हैं।

Q. मूंगा, मोती आदि रत्नों के बारे में ओशो का क्या नज़रिया था? इनका कोई असर होता भी है या नहीं?

A. कोई असर नहीं होता। मेरे हाथ देख लीजिए, एक भी अंगूठी नहीं है। और क्या सबूत चाहिए। हां, जो बेचते हैं, उन्हें जरूर फायदा होता है। एक वैद्य दावे के साथ पुड़िया बेच रहा था कि उनकी दवा से शर्तिया फायदा होता है। एक बुढ़िया दवा खाकर लौटी कि कोई फायदा नहीं हुआ। वैद्यराज में जवाब दिया कि फायदा कैसे नहीं होता, मुझे तो हर पुड़िया में पांच रुपये फायदा होता है। आपके फायदे की बात कौन कर रहा है।

Q. आप ओशो से लगभग 24 साल छोटे हैं। आपको उनसे पहली मुलाकात याद है?

A. सबसे पहले 7-8 साल की उम्र का ही ध्यान आता है। उन दिनों वह जबलपुर में प्रफेसर थे। साल में तीन-चार बार घर आते थे। उस वक्त गांव में उनके प्रवचन और ध्यान कार्यक्रम का आयोजन होता था। मैं भी वहां जाकर उनसे ध्यान सीखता था।

Q. घर में ओशो से हुई मुलाकातों के बारे में बताएं।

A. घर में उनसे मिलने की बातें मुझ याद नहीं आ रहीं। दरअसल जब भी वह घर आते थे, उनके साथ ढेरों लोग होते थे। घर में मेला लग जाता था। घर का ऐसा कोई विशेष संस्मरण मुझे याद नहीं आता जिसमें आप सुनना चाह रहे हैं कि भाई-भाई जैसा कुछ घटित हुआ हो। मैंने तो उन्हें हमेशा गुरु की तरह ही देखा है। अपने को शिष्य ही माना।

Q. आप एमबीबीएस करने के बाद पुणे के ओशो कम्यून में रहे। वहां का अनुभव कुछ बताइए कि उनके साथ आपकी कैसी बातचीत होती थी?

A. बातचीत तो ऐसी कभी नहीं हुई। ओशो किसी से मिलते नहीं थे और हम भी कभी ऐसा आग्रह नहीं करते थे कि उनसे मिलें। आश्रम का नियम था कि वहां रहनेवाले 15 दिन में एक बार उनसे मिल सकते थे सांध्य दर्शन के लिए। एक बार में 25-30 लोगों का नंबर आता था। मैं भी इसी तरह से उनसे मिलता था।

Q. कोई वन-टु-वन मुलाक़ात नहीं हुई?

A. वन-टु-वन भी हुई। बस उन्होंने पूछा, कैसे हो। हमने कहा, ठीक हैं। बस, इतना ही हुआ। पेन, टॉवल या घड़ी आदि जो भी उनके पास होता था, कभी गिफ्ट दे देते थे।

Q. अमेरिका के रजनीशपुरम का अनुभव कैसा रहा?

A. रजनीशपुरम एक पूरे शहर जैसा था। तकरीबन 64 हज़ार एकड़ में बना। न्यूयॉर्क शहर से तीन गुना बड़ा। कोई 5 हज़ार लोग वहां रहते थे जिनमें तकरीबन 100 लोग भारतीय थे। इनमें विनोद खन्ना भी थे। सन 82 से 85 तक वहां मैं रहा। वहां भी बस एक ही बार मेरी ओशो से मुलाकात हुई। मैंने अपनी तरफ से कभी नहीं कहा। उन्हीं का संदेश आता था।

Q. आजकल राम जन्मभूमि मसला फिर चर्चा में है। राम के बारे में ओशो का क्या नजरिया है?

A. ओशो की कई किताबों का नाम राम के नाम पर है। पर ओशो जिन राम की चर्चा करते हैं, उनका दशरथ के बेटे राम से कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें राम शब्द से प्यार है। वह कहते हैं कि हमारी चेतना में अंदर एक ध्वनि गूंज रही है जिसका उच्चारण हम कंठ से नहीं कर सकते। अगर हम उसे उच्चारण करने की कोशिश करेंगे तो उसके जो निकटतम ध्वनि होगी, वह या तो ओम् के रूप में होगी या फिर राम के रूप में। इस तरह ओशो उस राम की बात करते हैं जो हमारी आत्मा की आवाज के रूप में निकलता है। रहीम मुसलमान थे। उनका राम से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए था। लेकिन उन्होंने भी अपनी रचनाओं में राम का नाम कई बार लिया। वह दशरथ-पुत्र राम की बात नहीं करते, बल्कि आत्मा की ध्वनि राम की बात करते हैं। वह कहते हैं कि जिसने राम का नाम नहीं जाना, उसका सबकुछ व्यर्थ है। दरअसल राम का नाम दशरथ के बेटे राम से भी काफी पुराना है।

Q. राहुल गांधी के संदर्भ में आजकल वंशवाद पर बहस चल रही है। ऐसे में आपके संदर्भ में कुछ लोग कह सकते हैं कि क्या अध्यात्म में भी परिवारवाद चलेगा?

A. ओशो ने कभी भी किसी को उत्तराधिकारी नहीं बनाया, न ही किसी को कोई स्पेशल रोल दिया। हमारे परिवार में भी ऐसा कोई शख्स नहीं जिसने कुछ चाहा हो। अभी ओशो की विरासत को लेकर इतना झगड़ा चल रहा है, पर आप इसमें किसी परिवारवाले का नाम नहीं सुनेंगे। अगर हम लड़ें तो उनके झूठे शिष्य होंगे।

Q. ओशो के परिवार के बाकी लोगों के बारे में पब्लिक में ज्यादा जानकारी नहीं है?

A. हम कुल 10 जने हैं- 6 भाई और 4 बहनें। पहले भाइयों की बात करते हैं। सबसे बड़े ओशो थे। उनसे छोटे स्वामी विजय भारती थे जो दुनिया छोड़ चुके हैं। उनसे छोटे स्वामी अकलंक भारती भी अब नहीं हैं। उनसे छोटे स्वामी निकलंक भारती जो पुणे में अपने परिवार के साथ रहते हैं। उनके बाद पांचवें स्थान पर मैं हूं। मुझसे छोटे हैं स्वामी योग अमित जो पुणे आश्रम में रहते हैं। वह वहां आश्रम का पब्लिकेशन डिपार्टमेंट देखते हैं। हमारी चार बहनों में सबसे बड़ी हैं मां योगरसा, वह होशंगाबाद में अपने परिवार के साथ रहती हैं। दूसरी हैं मां स्नेह भारती। वह भी होशंगाबाद में हैं। तीसरी मां योग नीरू सागर में अपने परिवार के साथ हैं। चौथी हैं मां निशा भारती जो जबलपुर में परिवार के साथ रहती हैं। हम सब लोग मिलते रहते हैं।