‘उत्सव व्यक्ति को अपने जीवन के मूल्यांकन का अवसर प्रदान करते हैं’

आजादी के पहले की बात है। उन दिनों बंगाल के गांवों में लोग दुर्गा पूजा की तैयारियों में महीनों पहले लग जाते थे। विभिन्न व्यवसाय से जुड़े लोग भी इसकी तैयारी में जुट जाते थे, जिससे सभी को कुछ न कुछ काम मिल जाता था। किंतु सुभाषचंद्र बोस ने देखा कि समय बीतने के साथ-साथ अब उन धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन उतने जोर-शोर से नहीं किया जा रहा है। अब लोगों ने गांवों से शहरों की ओर पलायन करना शुरू कर दिया। इस तरह त्योहारों व धार्मिक आयोजनों का प्रचलन भी कम होता चला गया।

सुभाष ने अपने मित्रों के साथ धार्मिक आयोजनों के बारे में बातचीत की और बोले, ‘मुझे लगता है कि हमें धार्मिक पर्वों को महत्व देना चाहिए और इन्हें फिर से धूमधाम से मनाने की शुरुआत करनी चाहिए। ऐसा करने से लोगों में सामुदायिक विकास एवं सौहार्द की भावना विकसित होगी।’ सुभाष के एक मित्र ने उनका समर्थन किया, ‘तुम्हारा कहना बिल्कुल ठीक है। लोगों का ध्यान भी व्यर्थ की बातों से मुक्त होगा। वे कुछ समय भजन-कीर्तन और उत्सव में बिताएंगे तो उनका तनाव भी कम होगा।’

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सुभाष बोले, ‘मैंने एक पुस्तक में उत्सव के संदर्भ में पढ़ा है। उसमें लेखक ने लिखा है- उत्सव व्यक्ति को अपने जीवन के मूल्यांकन का अवसर प्रदान करते हैं। यदि हर कार्य को उत्सव का रूप देने का प्रयास किया जाए तो हमारा मन उत्साहित रहता है। इसलिए कभी भी विपरीत परिस्थितियों से घबराकर उत्सव के आयोजन को स्थगित नहीं करना चाहिए। आज अंग्रेजों के डर से लोग अपने पर्व तक मनाने से डरने लगे हैं।’

इस प्रकार सुभाष के प्रयासों से सन 1917 में एक पूजा का आयोजन किया गया। इसके बाद कई वर्षों तक धूमधाम से यह पूजा मनाई जाती रही। पलायन करने वाले लोग भी पूजा के समय गांवों की ओर लौटने लगे। सुभाष लोगों को संगठित करना जानते थे।

संकलन : रेनू सैनी

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