उत्तराखंड के कुमाऊं में इस तरह मनाया जाता है बैसाखी, जानिए इन परंपराओं के बारे में

अलबेरा बिखौती म्यरि दुर्गा हरै गे,
सार कौतिका चा नैं म्यरि कमरै पटै गे।।
कुमाऊं के मशहूर लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी ने द्वाराहाट में लगने वाले स्याल्दे बिखौती के कौतिक में सुदूर गांवों से आने वाली भारी भीड़ का उल्लेख किया है। इस भीड़ में वो पहाड़ी परिवेश में सजी-धजी अपनी दुर्गा के गुम होने का बखान करते हैं। आज इसी स्याल्दे बिखौती को राज्य मेले के रूप में मान्यता मिल चुकी है। कुमाऊं के पाली पछाऊं में यह मेला बैसाखी के दिन लगता है। कुमाऊं के दूर-दूर के गांवों से महिलाएं और पुरुष पारंपरिक पहनावे में आते हैं। निशाण फहराते हुए पहाड़ी गाजे-बाजे में नाचते-गाते मेला स्थल पर पहुंचते हैं। झोड़े, चांचरी, छपेली और भगनौल की धूम रहती हैं।

एक समय था, जब मनोरंजन के साधन नहीं थे। ऐसे में फुलदेई यानी चैत्र के पहले दिन से ही पहाड़ का रंग बदलने लगता था। गांवों में रोज रात को पुरुष-महिलाएं, लड़के-लड़कियां जुटते और समूह में झोड़ा गायन करते थे। हर साल कुछ नए झोड़े रचे जाते और कुछ पुराने सदाबहार झोड़ों को दोहराया जाता। एक हुड़का वादक हाथ से हाथ मिलाकर गोलाकार में घूमने वाले महिला-पुरुषों के बीच में डांगर (झोड़े में अगला जोड़ क्या होगा, उसे बताने वाला) का काम करता। यह विधा पहाड़ से अब लगभग विलुप्त होने की कगार पर है। ग्लोबलाइजेशन के युग में झोड़ों से खांटी कुमाऊंनी शब्द अब विलुप्त से हो रहे हैं। इसलिए नए झोड़ों में कई समसामयिक हिंदी और अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल भी हो रहा है।

कश्मीरी पंडित छोड आए इन मंदिरों को, जानें कौन करते हैं अब यहां पूजा

एक समय इस तरह के गीतों का चलन था :

घुघुती तु घुर घुघुती, घुगुती तु बास लै कब,
काफला तु मिठ काफला, काफला तु पाक लै कब

बैसाख का महीने शुरू हो चुका है, घुघुती तू कब बोलना चालू करेगी… काफल (जंगलों में मिलने वाला पहाड़ी फल) तू मीठा है, तू कब तक पकेगा। इसी तरह के प्रकृति का बखान करती, देवताओं की स्तुति और जीजा-साली, देवर-भाभी, प्रेमी-प्रेमिका के बीच चलने वाली चुहलबाजी से भरे श्रृंगार रस से ओत-प्रोत झोड़े गाए जाते हैं।

को धूरि फूल ल लौ, मांसी का फूला।
को देवो कैं चढ़ लौ, मांसी का फूला।।

किस जंगल में खिलेगा मांसी का फूल, किस देवता को चढ़ेगा मांसी का फूल.. इस तरह से हर देवता का नाम लेकर उसके दरबार में फूल चढ़ाने की बात झोड़ा गायन में किया जाता है। इसी तरह से जीजा-साली के बीच चलने वाली नोंक-झोंक वाले झोड़ों की धूम रहती है। दोनों के बीच चलने वाली हंसी मजाक को झोड़े में इस तरह से पिराया जाता है…

हे शिखरा डाना घाम उछै गो, छोड़ि दे भिना म्यरि धमेलि।
हे घाम वे छाड़ि घाम उछै जो, नि छोड़ु साई त्यरि धमेलि।।

चैत्र मास को रंगीला महीना कहा जाता है। खूब झोड़े और गीत गाए जाते हैं। इस महीने में पहाड़ में बहन-बेटियों को भिटोई (भेंट) देने की परंपरा भी है। एक जमाने में पूरी-पकवान, गुड़ की भेली और धोती-घाघरे देने का रिवाज था। अब बदलते समय में इनकी जगह मिठाइयों, साड़ियों और कैश ने ले ली है। इससे मेहमानों की आवाजाही भी इस महीने में जमकर होती है।

अमरनाथ यात्रियों के लिए खुशखबरी, 30 जून से शुरू होगी बाबा अमरनाथ की यात्रा

नींबू की होती है पूजा
बिखौती के दिन पहाड़ के कई इलाकों में नींबू की पूजा होती है। नींबू के पेड़ के पत्तों और फूलों को सूंघा जाता है। मान्यता है कि गर्मियों में नींबू का सेवन करने से विष यानी जहर यानी गर्मियों में फैलने वाली बीमारियां नहीं होती है। इसी तरह वैसाखी के दिन कई इलाकों के गांवों के मंदिरों में भी झोड़े-चांचरी गाने का रिवाज है। गुड़ और गोले का मिश्रण बनाकर प्रसाद के रूप में बांटा जाता है। कई जगह मेले लगते हैं, जिसमें सबसे बड़ा मेला द्वाराहाट में स्याल्दे बिखौती का है। यह कुमाऊं के गौरवशाली लोक परंपरा और संस्कृति से जुड़ा है। यह सामूहिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक है। कृषि और पशुओं का कारोबार करने वाले एक जमाने में इस मेले का इंतजार करते थे, ताकि यहां आकर अपना माल बेच सकें।

आखिर में आप सभी को वैसाखी की शुभकामनाएं…

दाथुलै कि धार, दाथुलै कि धार।
सबु कैं सुफल है जो बिखौती त्यार।