इस तरह शिक्षित युवकों को असल शिक्षा देते थे ईश्वरचंद्र विद्यासागर

ईश्वरचंद्र विद्यासागर प्रसिद्ध विद्वान और समाज सुधारक हुए हैं। एक दिन एक शिक्षित युवक उनसे मिलने उनके गांव मिदनापुर जा रहा था। युवक मिदनापुर स्टेशन पर उतरा। सूट-बूट में, शिक्षित से लगने वाले उस युवक के हाथ में एक सूटकेस था। ट्रेन से उतरते ही, उसने आवाज लगाई- कुली! कुली! आसपास कुली न देख वह युवक परेशान हो गया और बड़बड़ाने लगा- कैसी जगह है, यहां स्टेशन पर कुली भी नहीं रहता है। युवक की परेशानी देख धोती और बांह कटी शर्ट में एक साधारण सा उम्रदराज व्यक्ति उसके पास आया और उसका सूटकेस उठा लिया।

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स्टेशन से बाहर निकलने पर उस उम्रदराज व्यक्ति ने युवक को सामान पकड़ाया और स्टेशन के बाहर ही खड़ी बैलगाड़ियों की तरफ बढ़ गया। युवक ने उसे रोकते हुए कहा, ‘अपने पैसे तो लेते जाओ।’ उस व्यक्ति ने कोई जवाब नहीं दिया और वह एक बैलगाड़ी पर बैठकर अपने गांव की तरफ निकल गया। युवक ने मिदनापुर गांव के बारे में गाड़ीवानों से पूछा। गाड़ीवानों ने बताया कि वहां जाने का एक ही साधन बैलगाड़ी है। युवक थोड़ा झल्लाया, पर कोई उपाय नहीं था। रास्ते में गाड़ीवान ने पूछा, ‘मिदनापुर में किनके यहां जाना है आपको?’ युवक ने जवाब दिया, ‘मैं ईश्वरचंद्र विद्यासागर से मिलने जा रहा हूं। उन्हें जानते हो?’ बैलगाड़ी वाले ने कहा, ‘हां, अच्छी तरह जानता हूं।’ उसने युवक को सीधे ईश्वरचंद्र विद्यासागर के घर उतारा।

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घर के अंदर जाने पर युवक ने देखा, सामने वही स्टेशन वाला उम्रदराज व्यक्ति बैठा है। युवक हैरान था। ‘बताइए, क्या काम है, किनसे मिलना है?’ युवक ने कहा, ‘ मैं ईश्वरचंद्र विद्यासागर से मिलने आया हूं।’ ‘मैं ही विद्यासागर हूं। बताइए क्या बात है।’ युवक शर्म से पानी-पानी हो गया। उसने कहा, ‘मुझसे बड़ी भूल हो गई।’ विद्यासागर ने कहा, ‘जहां तक संभव हो, अपना बोझ खुद उठाना चाहिए। काम कोई भी हो, बड़ा या छोटा नहीं होता।’– संकलन: चंदन झा