इस तरह भूमि से प्रकट हुई थीं राधारानी, इसलिए कहलाता है सुरैया महापर्व

सद्‌गुरु स्वामी आनंद जी
जंबू द्वीप के भारत वर्ष में त्योहारों और पर्वों की समृद्ध शृंखला है। दिवाली, होली, गणेशोत्सव जैसे कई ऐसे त्योहार हैं, जो बहुत प्रसिद्ध हैं, जिन्हें लोग उत्सव की तरह मनाते हैं और महानिशा, नवरात्रि और शिवरात्रि के मानिंद कई पर्व हैं, जो उपासना के लिए, स्वयं की ऊर्जा से मुखातिब होने के लिए बहुत कारगर माने जाते हैं। पर कुछ ऐसे महापर्व भी हैं, जो हैं तो बेहद प्रभावी और कभी बड़े प्रचलित भी थे, पर कालांतर में वे गुप्त और लुप्तप्राय हो गए। आज भले ही वे अन्य पर्वों से कम चलन में हैं, पर भौतिक उन्नति और आत्मिक शक्ति के विकास के लिए बेहद तीव्र व महत्वपूर्ण हैं। कुछ ऐसा ही है उत्तर और पूर्व भारत का एक गुप्त महापर्व ‘सुरैया’। ये पर्व आमजन में प्रचलित न होकर सिद्धों और साधकों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को राधाअष्टमी कहते हैं। राधाअष्टमी स्वयं में एक महापर्व है। शास्त्रों में इस तिथि को श्री राधाजी के प्राकट्य दिवस के रूप में मान्यता प्राप्त है। कहते हैं कि इसी दिन राधा वृषभानु की यज्ञ भूमि से प्रकट हुई थीं। इस अष्टमी से कृष्ण पक्ष की अष्टमी का काल सुरैया कहलाता है। सुरैया, यानी वह काल जो जीवन को सुर में ढाल दे।

अलग अलग पंथ, संप्रदाय और मत के लोग इसे भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते हैं, पर कहते हैं कि आत्मजागरण के इस पर्व का प्रयोग राम, परशुराम, दुर्वासा, विश्वामित्र, बुद्ध, महावीर से लेकर आचार्य चाणक्य तक ने किया। प्राचीन काल में उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और नेपाल तक की वैज्ञानिक और आध्यात्मिक समृद्धि के सूत्र इन षोडश दिवस में समाहित हैं।

भारत के सोने की चिड़िया बनने की चाभी भी यह काल अपने भीतर समेटे और लपेटे हुए है। यांत्रिक, तांत्रिक, वैज्ञानिक, आत्मिक यानि स्वजागरण से लेकर समृद्धि प्राप्ति तक के लिए बेहद असरदार माना जाता है यह पवित्र काल खंड। इसीलिए आत्मबोध के प्यास की अनुभूति क्षीण होते ही आत्मजागृति के इस महापर्व को लक्ष्मी साधना का पर्व मान लिया गया। इसलिए देश के कई भागों में यह पर्व लक्ष्मी उपासना के रूप में ही जाना जाता है। इन दिनों में यक्ष, यक्षिणी, योगिनी व दैविक ऊर्जाओं के साथ ऐंकार, सौ:कार, श्रींकार, ह्रींकार, क्लींकार व अन्य बीज मंत्रों की अर्चना की समृद्ध परंपरा प्राप्त होती है।