पंडित श्री शर्मा आचार्य
बुढ़ापा नियति मानकर सहज स्वीकारा जाता था। किन्तु वैज्ञानिक शोध निष्कर्षों के आधार पर इसे एक प्रकार का रोग ठहराया गया है जो आनुवांशिक विरासत में मिलता है। इस रोग की रोकथाम संभव है और इसे लम्बे समय तक टाला जा सकता है। भारत में 50 वर्ष की आयु के उपरांत लोग इसे सहज स्वीकारने लगते हैं, इसके रोकथाम के उपायों से अनभिज्ञ होने के कारण इसके समक्ष समर्पण कर देते हैं किन्तु अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस जैसे देशों में इस रोग के कारणों और निराकरण के उपायों की शोध बड़े पैमाने पर की जा रही है और सफलता की संभावना भी बनी है क्योंकि इस व्याधि की शोध के लिए लम्बे समय की आवश्यकता है।
इसके लिए वैज्ञानिकों की भी कितनी ही पीढ़ियां लग सकती हैं। इस कठिनतम कार्य के लिए धैर्यवान वैज्ञानिकों की एक पूरी पीढ़ी अमेरिका व पश्चिमी जर्मनी में इन शोध कार्यों में लगी हुई है। अमेरिकी वैज्ञानिक बेरौज ने समुद्री जन्तु रोटीफर पर जल का तापमान 10 डिग्री से. ग्रेड कम कर प्रयोग किया तो उसकी आयु दुगुनी हो गई। सामान्यतः उसकी आयु 18 दिन से अधिक नहीं होती।
हिमालय के योगियों, संन्यासियों के लम्बे जीवन का रहस्य भी सीमित आहार एवं निम्न तापमान ही है। क्योंकि इसी प्रकार के प्रयोग अन्य जीव-जन्तुओं पर भी किए गए तो उनकी आयु भी लंबी हो गई। जीव-जन्तु मनुष्य की भांति असंयमी जीवन नहीं जीते फिर भी तापमान की गिरावट से उनकी उम्र में वृद्धि हो गई।
वैज्ञानिक शोध से एक अजीब निष्कर्ष सामने आया है कि जो कोशिकाएं शरीर की रक्षात्मक पंक्ति में कार्यरत रहती हैं उन्हीं की बगावत का परिणाम बुढ़ापा है। क्योंकि रक्षात्मक कोशिकाएं ही सामान्य कोशिकाओं को खाने लगती हैं। तभी बाल पकने लगते हैं, झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं, नेत्रों की ज्योति मन्द पड़ जाती है, अनेकों उदर विकार पनपते हैं और दन्त क्षय तथा श्रवण शक्ति कम हो जाती है। मांस पेशियां कमजोर पड़ जाती हैं। रक्त नलिकाएं मोटी पड़ जाती हैं यकृत एवं गुर्दे की कार्यशक्ति भी क्षीण होने लग जाती है।
रक्षात्मक कोशिकाओं की बगावत का स्पष्ट उदाहरण उन लोगों में देखा जा सकता है जो असंयमी हैं और नशा सेवन करते हैं अथवा आलसी और अकर्मण्य हैं। वे ही समय से पहले बूढ़े होते हैं और उन्हीं की इन्द्रियां भरी जवानी में शिथिल पड़ जाती हैं। भारतीय आयुर्वेदाचार्यों का मत है कि जीवन रक्षक कोशिकाएं कहीं बगावत न कर बैठे इसके लिए आहार-विहार के संयम के साथ ही नियमित भोजन में तुलसी, आंवला, विधारा, अश्वगंधा जैसी औषधियां एवं गाय का दूध सेवन करते रहने से यह संकट लम्बे समय तक टाला जा सकता है।
यज्ञीय वातावरण में निवास करने वालों का यही मत है कि यज्ञ हवन में प्रयुक्त जड़ी-बूटियों के धूएं में वह अमोघ शक्ति है जिससे जीवन रक्षक कोशिकाएं जल्दी बगावत नहीं कर पाती। मंत्र वैज्ञानिको का निष्कर्ष है कि मन्त्रों की ध्वनि से शरीर की विभिन्न ग्रन्थियों से ऐसा स्राव निकलता है जो कोशिकाओं के असमय क्षरण को रोक देता है।
अमेरिकी आयुशास्त्र वैज्ञानिक- डेंकला के अनुसार आयु नियंत्रक केन्द्र मस्तिष्क में विद्यमान हैं जो आयु बढ़ने के साथ-साथ अधिक सक्रिय होता है। इसकी सक्रियता सामान्य बनाए रहने के लिए आहार-विहार की नियमितता आवश्यक है। मांस-मदिरा, अनियमित दिनचर्या, क्रोध, भय, चिंता आदि कारणों से यह केन्द्र अधिक सक्रिय होने लगता है इसी कारण ऐसे लोगों को असमय में बुढ़ापा घेरने लगता है।
बुढ़ापे को लम्बे समय तक टालने और अनेक रोगों से छुटकारे के लिए नैसर्गिक जीवन पद्धति का अनुसरण किया जाना चाहिए, जिससे मस्तिष्क पर तनाव और शरीर दबाव न पड़े। तब शतायु हो सकने की और निरोग बने रहने की संभावना है।