इसलिए बचपन में घर नहीं लौटे थे कांशीराम, ऐसे मिले सत्ता और सम्मान पाने के उपाय

बेटे के पत्र से बिशन कौर उदास थीं। पहले उनकी समझ में नहीं आया कि क्या करें। फिर बेटे को हाथ से जाते देख उसे समझाने पूना गईं। यह उनका बड़ा बेटा था। सरकारी नौकरी में था। शादी विधायक की बेटी से तय थी, सगाई का भी दिन पक्का था। पत्र में पुत्र ने लिखा था कि वह कभी घर नहीं आएगा। वैवाहिक बंधन से मुक्त रहेगा, क्योंकि उसने अपने कंधे पर पूरे समाज की जिम्मेदारी ले ली है। पूना में दो महीने तक मां बेटे से घर चलने के लिए कहती रही।

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इन दो महीनों में रात में मां की नींद जब भी टूटती, बेटा पढ़ता ही मिलता। डॉ. आंबेडकर को पढ़ने में बेटे का बहुत मन लगता था। पहली नींद से उठने के बाद वह देखती कि बेटा हाथ में किताब लिए-लिए सो गया। वह बत्ती बुझा देती। फिर नींद टूटती तो पाती कि बेटा फिर से पढ़ रहा है। एक बार वह बोलीं भी कि सो जाओ। बेटा नहीं माना तो किताब छीनकर पूछा, ‘इसमें ऐसा क्या है, जो तुम रात-रात भर जागते हो?’ बेटा बोला, ‘मां, इस किताब में सत्ता और सम्मान पाने के उपाय लिखे हैं। मैं उन्हीं को आत्मसात करने की कोशिश कर रहा हूं।’

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बेटे को घर ले जाने की हर कोशिश असफल हुई। मां हार गई। निराश होकर घर वापस आ गई। घर आकर उसने बेटे की सगाई तोड़ी। यह बेटा फिर कभी परिवार के पास नहीं आया। राखी में भी नहीं। बहन की शादी में भी नहीं। पिता को मुखाग्नि देने भी नहीं। मां की ममता भी बेबस होकर रह गई। भाइयों से दूरी बना लेने वाले और घर कभी न जाने की प्रतिज्ञा पूरी करने वाले इस शख्स का नाम था- कांशीराम। ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज और डॉ. आंबेडकर के विचारों के जरिए दलितों को सत्ता और सम्मान दिलाने के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया।– संकलन: हरिप्रसाद राय