इसलिए घी का दीया जलाने पर गांधीजी कस्तूरबा से नाराज हुए

एक बार गांधीजी किसी निर्धन ग्राम में प्रवासित थे। उस दिन उनका जन्मदिन था। कस्तूरबा ने शाम को आश्रम में घी का दीया जलाया। गांधी जी उस वक्त वहां नहीं थे। लौटने पर उन्होंने आश्रम में घी का दीया जलते देखा वहां बैठे आश्रमवासियों से पूछा कि यह दीया किसने जलाया है? कस्तूरबा बोलीं, ‘मैंने जलाया है।’ गांधीजी ने उदासी भरे स्वर में कहा, ‘आज मेरे जन्मदिन पर जो सबसे बुरी बात हुई है वह है यह दीया जलना।’ कस्तूरबा सोचने लगीं कि इसमें इतनी बुरी बात क्या हो गई और अन्य आश्रमवासी भी चकित होकर सोचने लगे।

गांधीजी अपनी बात को साफ करते हुए बोले, ‘कस्तूरबा! तुम जानती हो न कि गांव के लोग कितने निर्धन हैं। उन्हें रोटी पर चुपड़ने के लिए तेल नहीं मिलता और तुम मेरे जन्मदिन पर घी के दीये जला रही हो। इससे बड़ी फिजूलखर्ची क्या हो सकती है/’ कस्तूरबा इससे संतुष्ट नहीं हुईं। उन्होंने नम्रता से गांधी जी से पूछा, ‘आप ही ने तो कुछ दिन पूर्व एक प्रवचन में कहा था कि गलत और बुरी जगह खर्च करना फिजूलखर्ची है। मैंने तो पवित्र भावना से एक पवित्र दिन इस घी के दीये को जलाया है।’

पुत्र बचाने भगवान बुद्ध के पास पहुंची महिला और तभी…

गांधीजी ने कस्तूरबा से कहा, ‘जो वस्तु निर्धन लोगों को नसीब नहीं होती, उसका उपयोग करने का हमें भी कोई अधिकार नहीं है। यह घी किसी किसान परिवार में बीमार व्यक्ति के भोजन की पौष्टिकता बढ़ा सकता था। तब यह सही खर्च कहा जाता। मगर मेरे जन्मदिन का मौका जानकर तुम दीये में घी जला देती हो तो यह उपयुक्त नहीं है और गलत जगह खर्च करना ही फिजूलखर्ची है।’ गांधीजी के समझाने पर कस्तूरबा को ही नहीं, आश्रमवासियों को भी समझ में आ गया कि उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल सबसे ज्यादा जरूरतमंद व्यक्ति की प्राथमिकता के हिसाब से होना चाहिए।

प्रस्तुति : बेला गर्ग

इनाम में मिले 99 सोने के सिक्के फिर भी हुआ उदास, वजह बस इतनी सी