प्रस्तुति : बेला गर्ग
एक बार आचार्य विनोबा भावे पदयात्रा करते अजमेर पहुंचे। उनके परम भक्त रामस्वरूप गर्ग ने एक अमेरिकी पर्यटक की उनसे मुलाकात कराई। उस अमेरिकी ने विनोबा भावे के साथ कुछ दिन बिताए और उनसे अहिंसा एवं दुनिया में अमन कायम करने के मसले पर लंबी चर्चाएं कीं। वह विनोबा की अहिंसक जीवनशैली, सादगी एवं विचारों से प्रभावित हुआ। वह भारत की अहिंसा को सूक्ष्मता से जानना चाहता था।
विदा लेते वक्त उसने कहा, ‘मैंने आपसे और आपके देश से काफी कुछ सीखा और अब मैं अपने मुल्क जा रहा हूं। अपने देशवासियों को मैं आपकी ओर से क्या संदेश दूं, जिससे उन्हें लाभ पहुंचे, जिससे उनकी बेचैनी कम हो, वे शांति का जीवन जी सकें?’ विनोबा जी कुछ क्षण के लिए गंभीर हो गए, फिर बोले, ‘मैं क्या संदेश दे सकता हूं! मैं तो एक सामान्य व्यक्ति हूं और आपका देश तो बहुत ही बड़ा है, समृद्ध है, शक्तिशाली है। इतने बड़े देश को कोई कैसे उपदेश दे सकता है?’
अमेरिकी पर्यटक ने जिद की तो विनोबा बोले, ‘अपने देशवासियों से कहना कि वे कारखानों में साल में तीन सौ पैंसठ दिन काम करके खूब हथियार बनाएं, काम नहीं होगा तो बेरोजगारी फैलेगी। किंतु जितने हथियार बनाए जाएं उन्हें तीन सौ पैंसठवें दिन समुद्र में फेंक दें।’ अमेरिकी चौंका, ‘महाराज, उतनी मेहनत बनाए हथियारों को खुद ही नष्ट कर दें?’ आचार्य बोले, ‘हथियार बनाना अगर मजबूरी है तो कम से कम उसके उपयोग पर ही रोक लगाओ। तुम्हारे हथियार जिस किसी देश को पहुंचते हैं, वहां अशांति फैलाने की मानसिकता मजबूत होती है। तो दुनिया में अशांति फैलाकर तुम शांति कैसे पा सकते हो?’ बात का मर्म समझकर अमेरिकी पर्यटक का सिर शर्म से झुक गया। उसने न केवल अहिंसा का वास्तविक मर्म समझा बल्कि प्रेरणा भी ग्रहण की।