आखिर इस व्‍यक्ति ने क्‍यों नहीं उठाई गांधीजी के नीचे से दरी

गांधीजी जब चंपारण में थे, तभी अहमदाबाद के मिल मजदूरों और खेड़ा के किसानों की तरफ से उन्हें बार-बार बुलावा आने लगा। मगर वे चंपारण में चलते अपने काम में फंसे रहे। एक दिन मजदूरों की नेता और एक बड़े व्यावसायिक घराने से संबंध रखने वाली अनुसूया साराभाई के पत्रों के साथ, खेड़ा के किसानों का बुलावा दोबारा आया। वहां सूखे और अकाल के बावजूद अंग्रेजी शासन लगान वसूली रोकने को तैयार नहीं था। सो, हारकर गांधीजी अहमदाबाद के लिए रवाना हुए और पटना से मुगलसराय के लिए ट्रेन पकड़ी।

अपनी आदत के अनुसार गांधीजी रेल के तीसरे दर्जे में ही यात्रा कर रहे थे। वहां काफी भीड़-भाड़ थी। गाड़ी के एक अन्य यात्री ने उन्हें पहचान लिया, और वह उनको पंखा झलने लगा। गांधी के सचिव महादेव भाई भी साथ थे। उन्हें यह देखकर अच्छा लगा कि गांधीजी जल्दी ही सो गए। सोते समय गांधीजी का पैर किसी यात्री की दरी पर रखा हुआ था। उस यात्री के जब उतरने का समय आया, तो उसे लगा कि अगर उसने दरी समेटी, तो गांधीजी की नींद में खलल होगा। वह दरी वहीं छोड़कर अपने स्टेशन पर उतर गया।

जब गांधीजी उठे और दरी देखी, तो महादेव भाई से उसके बारे में पूछने लगे। एक मारवाड़ी वहीं पर बैठे-बैठे यह सब कुछ देख रहा था। मुगलसराय स्टेशन पर उतरने से पहले उसने गांधीजी से कहा, ‘यह दरी मुझे दे दीजिए ना। आप इसका क्या करेंगे?’ पर गांधीजी से कोई भी सामान वापस पाना आसान कहां था। गांधीजी मुस्कुराए और कहा, ‘मैं तो इस दरी का ट्रस्टी हूं। इस दरी को मुझे इसके मालिक को ही भेजना होगा।’ फिर मुड़कर उन्होंने महादेव भाई से कहा, ‘दरी के मालिक का पता लगाएं। और संभव हो तो यह दरी उन्हें वापस भिजवा दें।’

संकलन : दीनदयाल मुरारका