अपने मन के वश में न रहे, मन को अपने वश में रखें

बात तब की है, जब बुद्ध चालिय पर्वत पर भिक्षुओं के साथ वास कर रहे थे। एक दिन बुद्ध भिक्षाटन पर गए हुए थे। उनके साथ मेघिय नाम का एक भिक्षु भी था। भिक्षाटन के दौरान उसने एक बहुत ही सुंदर बाग देखा। उसने सोचा कि यह बगीचा बहुत ही शांत और मनमोहक है। क्यों न इसमें बैठकर ध्यान लगाया जाए! उसके मन में यह बात बार-बार आने लगी। जब भिक्षाटन निपटा तो उसकी इच्छा और भी प्रबल हो गई।

उसने तथागत से आग्रह किया, ‘भंते! वह बगीचा बहुत सुंदर और शांत है। वहां आसानी से ध्यान लग जाएगा। आप अनुमति दें तो मैं वहां जाकर ध्यान करूं।’ बुद्ध बोले, ‘कोई दूसरा भिक्षु आ जाता है, तब चले जाना।’ यह सुनकर मेघिय चुप तो हो गया, पर उसका मन बेचैन था। कुछ देर में उसने फिर से प्रार्थना की। बुद्ध ने उसे फिर समझाया कि थोड़ी देर प्रतीक्षा कर ले। लेकिन उसका मन तो वहां जाने के लिए मचल रहा था। जब उसने शास्ता से बार-बार निवेदन किया तो उन्होंने अनुमति दे दी। मेघिय तुरंत उस बगीचे में पहुंचा और ध्यान-साधना में बैठ गया।

लेकिन वहां फिर से उसका मन भटकने लगा। पूरा दिन बीत गया पर मन शांत नहीं हुआ। ध्यान लगाने का मकसद पूरा नहीं हो सका। शाम होने पर वह बुद्ध के पास लौटा और उन्हें पूरे दिन की कहानी सुनाई। उसने बताया कि किस तरह उसने चित्त को एकाग्र करने की कोशिश की, पर असफल रहा। तब बुद्ध ने उसे समझाया, ‘मेघिय, वहां जाकर तुमने उचित नहीं किया। मैं तुम्हें बताता रहा कि मैं अभी अकेला हूं। जब तक कोई भिक्षु नहीं आ जाता है, तब तक मुझे अकेला मत छोड़ो। पर तुम नहीं माने। किसी को इतना कमजोर नहीं होना चाहिए कि वह हमेशा अपने चित्त के ही वश में रहे। चित्त को अपने वश में रखना चाहिए।’

संकलन : विजय मौर्य