अपने बॉस को भी बता दीजिए कि काम ऐसे किया जाता है

ओशो/आध्यात्मिक गुरु

जीवन एक काम है या उत्सव? अगर जीवन एक काम है, तो बोझ हो जाएगा। अगर जीवन एक काम है, तो कर्तव्य हो जाएगा। अगर जीवन एक काम है, तो हम उसे ढोएंगे और किसी तरह निपटा देंगे। कृष्ण जीवन को काम की तरह नहीं, उत्सव की तरह, एक फेस्टिविटी की तरह लेते हैं। जीवन एक आनंद का उत्सव है, काम नहीं है।

ऐसा नहीं है कि उत्सव की तरह लेते हैं तो काम नहीं करते हैं। काम तो करते हैं। लेकिन काम उत्सव के रंग में रंग जाता है। काम नृत्य-संगीत में डूब जाता है। निश्चित ही बहुत काम न हो पाएगा इस भांति, थोड़ा ही हो पाएगा। क्वांटिटी ज्यादा नहीं होगी, लेकिन क्वालिटी का कोई हिसाब नहीं है! परिमाण तो कम होगा, मात्रा कम होगी, लेकिन गुण बहुत गहरा हो जाएगा। कभी आपने सोचा कि काम वाले लोगों ने, जो हर चीज को काम में बदल देते हैं, जिंदगी को कैसा तनाव से भर दिया है।

जिंदगी की सारी एंग्जाइटी, सारी चिंता, यह अति कामवादी लोगों की उपज है। वे कहते हैं, करो, एकदम करते रहो, करो या मरो। उनका नारा यह है—डू ऑर डाय। जिंदा हो तो करो कुछ, अन्यथा मरो। वही एक काम करो। और उनके पास कोई और दृष्टि नहीं है, लेकिन किसलिए करो? आदमी करता किसलिए है? आदमी करता इसलिए है कि थोड़ी देर जी सके। और जीने का क्या मतलब होगा फिर?

काम भी इसलिए कर सकते हैं कि किसी क्षण में हम नाच सकें। लेकिन काम इतने जोर से पकड़ लेता है कि फिर नाचने का तो मौका ही नहीं आता, गीत गाने का मौका ही नहीं आता; बांसुरी बजाने की फुर्सत कहां रह जाती है, दफ्तर से घर हैं, घर से दफ्तर हैं; घर दफ्तर आ जाता है दिमाग में बैठकर, दिमाग में बैठकर दफ्तर घर पहुंच जाता है।

फिर जिंदगी भर दौड़ते रहते हैं इस आशा में कि किसी दिन वह क्षण आएगा, जिस दिन विश्राम करेंगे और आनंद ले लेंगे। वह क्षण कभी नहीं आता। वह आएगा ही नहीं। कामवृत्ति वाले आदमी के लिए वह क्षण कभी नहीं आता।