सिगरेट पीने को न करने वाले इस विज्ञापन का ऐसा असर हुआ कि सभी पीने लगे सिगरेट

बात 1902 की है। तब तक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का नाम लेखन, समालोचना और उनकी सामाजिक-राजनैतिक गतिविधियों को लेकर चर्चित हो चुका था। ‘आर्म्स एंड द मैन’ नामक उनका नाटक सुर्खियों में था। उसका मंचन तो हो ही रहा था, गोष्ठियों में भी इसकी काफी चर्चा थी। नाटक में प्रेम और युद्ध के परस्पर विरोधाभास और मानवीय पाखंड पर किए गए व्यंग्य की विवेचना अखबारों में छपती रहती थी। उस नाटक में एक डायलॉग था, ‘दस में से नौ सैनिक जन्मजात मूर्ख होते हैं।’ इस डायलॉग पर सैनिकों और सैन्यीकरण समर्थकों की आपत्ति भी दर्ज हो रही थी।

उन्माद, युद्ध, जान देने वाले सैनिकों का यशस्वीकरण, अंततोगत्वा शांति की चाहत और समझौता करके लौट के बुद्धू घर को आए वाली स्थिति पर उनके व्यंग्य की बहती हुई बयार उस समय के अब्दुल्ला एंड कंपनी लिमिटेड के मालिक को भी लगी। इस पर मालिक ने अब्दुल्ला नामक सिगरेट के उत्पादन को बाजार में उतारने और जन-जन तक पहुंचाने के लिए जॉर्ज बर्नार्ड शॉ से इसका विज्ञापन लिखवाने का निर्णय लिया। जॉर्ज बर्नार्ड शॉ अपने सामाजिक दायित्व को समझते थे। इसलिए उन्होंने सिगरेट का विज्ञापन लिखने से इनकार कर दिया।

कंपनी की तरफ से बार-बार आग्रह किए जाने पर उन्होंने कहा कि मुझे लिखना होगा तो मैं लोगों को सिगरेट पीने के लिए उत्साहित न करके उन्हें हतोत्साह करने वाली बातें लिखूंगा। आखिरकार कंपनी हतोत्साह करने वाले विज्ञापन लिखवाने के लिए भी तैयार हो गई। फिर जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने लिखा, ‘डोंट स्मोक इवेन अब्दुल्ला।’ समाचारपत्रों में बर्नार्ड शॉ की इस कलमकारी के साथ अब्दुल्ला सिगरेट का विज्ञापन दिया गया। सिगरेट को बाजार में उतारते ही कंपनी को इसके ऑर्डर मिलने लगे। देखते-देखते इसने विक्रय के सारे रेकॉर्ड तोड़ दिए। विज्ञापन जगत में ऐतिहासिक मानी जाने वाली यह घटना बताती है कि नेगेटिव लगने वाला मैसेज भी पॉजिटिव रिजल्ट दे सकता है।

संकलन : हरिप्रसाद राय