सच्चा प्रेम क्या होता है इस तरह बताया महात्मा बुद्ध ने

डॉ. प्रणव पण्ड्या/शांतिकुंज हरिद्वार, भगवान् बुद्ध अपने शिष्यों समेत परिव्रज्या पर जा रहे थे। रास्ते में एक शिष्य ने पूछा – हम, लोगों के साथ सदा सद्भाव भरा व्यवहार करते हैं पर बदले में हमें उपेक्षा ही मिलती है-भन्ते, इसका क्या कारण है।

तथागत ने कुछ उत्तर न दिया। यात्रा आगे बढ़ती रही। मध्याह्न हो गया और प्यास लगी। एक कुंआ मिला। उस पर डोल भी पड़ा था और रस्सी भी। पानी खींचा गया। भरा हुआ डोल ऊपर तक आते-आते खाली हो गया, श्रम निरर्थक जाने पर खींचने वाले को दुःख हुआ। संयोगवश वह प्रश्नकर्ता ही पानी भी खींच रहा था। उसे यहाँ भी असफलताजन्य खिन्नता कष्ट दे रही थी।

भगवान बुद्ध ने कहा-तात् इस डोल में छेद है। सो कुंआ, रस्सी, श्रम आदि सब साधन होने पर भी पानी छेदों में होकर बह जाता है और तृप्ति लाभ से वंचित होना पड़ता है। प्रतिफल की इच्छा के छेदों के रहते मनुष्य की सेवा साधना और प्रेम प्रवृत्ति भी सन्तोष दायक परिणाम उत्पन्न नहीं करती।

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देखा यही जाता है कि सेवा सहायता-या स्नेह सद्भाव का प्रयोक्ता आरम्भ में ही अपने उस अनुदान के लम्बे-चौड़े प्रतिफल का स्वप्न देखता है। और उसकी उतनी पूर्ति नहीं हो पाती तो खिन्नता और खीज से भरी निराशा व्यक्त करता है। आशा के अनुरूप दूसरों की प्रशंसा या प्रतिदान मिलने की आकांक्षा लेकर उदारता या आत्मीयता बरती जाय तो उसे छेद वाले डोल की तरह ही समझना चाहिए। जिसका अभीष्ट परिणाम मिल सकना कठिन है।

व्यवहार और प्रेम के अन्तर को समझ लेना आवश्यक है। व्यवहार प्रतिदान के ऊपर अवलम्बित रहता है। उसे व्यवसाय या आदान-प्रदान कहते हैं। संसार के सभी कारोबार इसी आधार पर चलते हैं। मजदूर काम करता है, मालिक उसका पारिश्रमिक चुकाता है। आज घर आने पर मित्र को चाय पिलाई, कल उसके घर जाने पर हम चाय की अपेक्षा कर सकते हैं। यह व्यवसाय है। मधुर व्यवहार भी प्रतिफल पर आधारित होते हैं।

इस प्रकार की मधुरता या घनिष्ठता को प्रेम नहीं कहा जा सकता। जिसमें परिणाम प्रतिदान की अपेक्षा की गई हो। वस्तुओं की तरह व्यवहार का भी आदान-प्रदान होता है। व्यवसाय में लाभ और हानि के लिए तैयार रहना पड़ता है। अपनी सद्भावना को उतनी ही सद्भावना के रूप में प्रत्युत्तर मिला तो जमा खर्च बराबर। ज्यादा मिला तो नफा। कम मिला तो घाटा। यह तो धन्धे में चलता ही रहता है। इसमें खिन्न होने या शिकायत करने की क्या आवश्यकता।

प्रेम इससे ऊँची चीज है। वह न किसी पर अहसान करने के लिए किया जाता है और न प्रतिदान के लिए। प्रेम इस धरती का अमृत है और मनुष्य का प्राण, यह जितना ही विकसित होगा उतनी ही सुख शान्ति की सम्भावना साकार होगी।