शिक्षक दिवस पर जानिए भारत की पहली महिला शिक्षक की रोचक कथा

5 सितंबर यानी आज शिक्षक दिवस मनाया जा रहा है। भारतीय परंपरा में गुरु को गोविंद से बढ़कर आदर दिया गया है क्योंकि गुरु की शिक्षा से ही गोविंद मिलता है। शिक्षा एक प्रतिपादन है तो उसका मूर्तरूप शिक्षक है। शिक्षक दिवस पर हम आपको एक ऐसी महिला के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसने अपने जीवन में कई रोक-टोक और बंदिशों को दूर करते हुए उस क्षेत्र में इतिहास रचा, जिसमें महिलाओं को कमतर आंका जाता था। इस तरह वह भारत की पहली महिला शिक्षक बन गईं, इनका नाम है, सावित्रीबाई फुले। शिक्षक दिवस पर राधाकृष्णन को सभी याद करते हैं क्योंकि उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में कई कार्य किए और उन्होंने सभी के लिए शिक्षा की नींव तैयार की। लेकिन महिलाओं को भी शिक्षित करना जरूरी है, इसके लिए सावित्रीबाई फुले ने कई कदम उठाए। आइए जानते हैं भारत की पहली महिला शिक्षक के बारे में खास बातें।

9 साल की उम्र में हो गया था विवाह
सावित्रीबाई फुले का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में 3 जनवरी 1831 को हुआ था। इनके पिता का नाम खन्दोजी नेवसे और माता का नाम लक्ष्मी था। सावित्रीबाई फुले का विवाह 9 साल की उम्र में यानी 1840 में ज्योतिराव फुले से हो गया था। सावित्रीबाई बचपन से ही गलत के खिलाफ आवाज उठाती रहती थीं, उनको पढ़ने-लिखने का भी शौक था। इसी लगन को देखते हुए ज्योतिराव फुले ने उनको आगे पढ़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर महिलाओं के अधिकार एवं शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए, साथ ही में उनको मराठी काव्य का अग्रदूत माना जाता है।

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लड़कियों के लिए खोला पहला स्कूल
सावित्रीबाई फुले ने 1 जनवरी 1848 को महाराष्ट्र के पुणे जिले में लड़कियों के लिए देश के पहले बालिका स्कूल की स्थापना की। लेकिन उस दौर में स्कूल खोलना इतना आसान नहीं था। सावित्रीबाई और उनके पति के इस काम को उच्च जाति के लोगों ने अच्छा नहीं समझा और जमकर विरोध किया, जो उस वक्त लड़कियों की शिक्षा के खिलाफ थे। जब सावित्रीबाई स्कूल जाती थीं तो लोग उनको पत्थर से मारते थे, उन पर गंदगी फेंकते थे। समाज के कई ताने भी सुने। लेकिन वह उन चीजों से कभी नहीं रुकीं और उन्होंने अपने पति के साथ मिलकर लड़कियों के लिए 18 स्कूल खोले और अठारहवां स्कूल भी पुणे में खोला गया।

समाज द्वारा किया गया प्रताड़ित
जब लोगों को लगा कि इन सब चीजों से वह रुकने वाली नहीं हैं तो तब ज्योतिराव के पिता गोविंदराव पर यह कहकर दबाव डाला गया कि ज्योतिराव और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले धर्म के खिलाफ काम कर रहे हैं और इससे उनका सामाजिक बहिष्कार किया जा सकता है। तब ज्योतिराव के पिता ने दोनों को समझाने की कोशिश की लेकिन जब वह नहीं माने तो उन दोनों को घर से निकाल दिया। लेकिन इसके बाद भी दलित समाज की उन्नति और लड़कियों को पढ़ाने का कार्य नहीं छोड़ा। लेकिन जब इन चीजों से भी बात नहीं बनती दिख रही थी, तब फुले दंपति की हत्या करने के इरादे से कुछ गुंडों को उनके घर भेज दिया।

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समाज की भलाई के लिए किए कई कार्य
फुले दंपति ने महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए कई सराहनीय कार्य किए। उस समय विधवा महिलाओं के सिर मुंडवा दिए जाते थे, गर्भवती विधवा महिलाओं का समाज से बहिष्कार कर दिया जाता था। बाल विवाह, सती प्रथा, छुआ छूत, दलित उत्थान और न जाने कितनी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ दोनों पति पत्नी लड़े और महिलाओं के लिए कई कार्य किए। ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने गर्भवती महिलाओं के लिए बालहत्या प्रतिबंधक गृह भी खोला। यह ऐसी गर्भवती महिलाओं का घर था, जिनको समाज में प्रताड़ित किया जाता था। यहां बच्चों को शिक्षा और उज्जवल भविष्य दिया जाता था। एक बार सावित्रीबाई ने आत्महत्या करने जा रही एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई को रोका और उससे वादा किया कि बच्चा होने के बाद वह उस बच्चे को अपना नाम देंगे। तब महिला ने बच्चे को जन्म दिया, जिसे फुले दंपति ने अपना नाम देकर परवरिश की और पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया।

क्रांतिकारी कदम उठाने वाली पहली महिला बनीं सावित्रीबाई
उनके पति ज्योतिराव को भी महाराष्ट्र और भारत में सामाजिक सुधार आंदोलन में एक सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में माना जाता है। उनको महिलाओं और दलित जातियों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए जाना जाता है। ज्योतिराव बाद में ज्योतिबा के नाम से जाने गए और वह सावित्रीबाई के संरक्षक, गुरु और समर्थक थे। दोनों ने एक दूसरे का बराबरी से साथ निभाया और किसानों व मजदूरों के लिए समस्याओं के लिए संघर्ष किया। ज्योतिबा की मौत के बाद सावित्रीबाई ने उनकी चिता को आग लगाई, ऐसा क्रांतिकारी कदम उठाने वाली सावित्री पहली महिला थीं। उनकी मृत्यु के बाद सावित्रीबाई ने पूरी कुशलता के साथ ज्योतिबा के आंदोलन का नेतृत्व किया। इस दौरान कई ग्रंथों की रचना भी की और आधुनिक जगत में मराठी की पहली कवयित्री भी बनीं।

जब प्‍लेग के मरीजों की जान बचाते हुए सावित्रीबाई फुले ने गंवा दी अपनी जान

इस तरह हुई मृत्यु
1848 में बालिकाओं के लिए स्कूल चलाना कितना मुश्किल रहा होगा, इसका कल्पना शायद आज नहीं की जा सकती। जब लड़कियों की शिक्षा पर सामाजिक पाबंदी थी। उस दौर में सावित्रीबाई ने सिर्फ खुद पढ़ीं बल्कि दूसरी लड़कियों को पढ़ाने का बंदोबस्त भी किया। हर वक्त और हर पल समाज से लड़ते हुए फुले दंपति ने समाज के भलाई के लिए काम किए। 10 मार्च 1897 को प्लेग के कारण सावित्रीबाई फुले का निधन हो गया। प्लेग की महामारी में सावित्रीबाई मरीजों की सेवा करती थीं। प्लेग से पीड़ित एक बच्चे की सेवा करने के दौरान इनको भी प्लेग हो गया और इसी कारण से इनकी मृत्यु हो गई।