इसी समय जनक की नींद खुली। वह व्याकुल हो गए। उनकी आंखों से आंसू की धारा फूट पड़ी। क्या सारा राज्य नष्ट हो गया, क्या मैं दर-दर का भिखारी बन गया हूं? राजा को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उसी समय प्रात: कालीन शहनाई बजी और संगीत की स्वर लहरियां झनझनाने लगीं। अब भाटगण महाराजा के जयकारे लगा रहे थे। वह सोचने लगे, खिचड़ी की बात सत्य है या यह जय-जयकार सत्य है?
राजा जनक राज्यसभा में पहुंचे। उन्होंने सभासदों से पूछा- यह सत्य है या वह सत्य है? राजा के प्रश्न का उत्तर कोई भी न दे सका। अंत में उन्होंने अष्टावक्र ऋषि के सामने यह प्रश्न रखा। अष्टावक्र ने कहा, ‘राजन! तुमने जो स्वप्न में देखा है वह भी मिथ्या है और जो तुम जागृत अवस्था में देख रहे हो, वह भी मिथ्या है। न यह सत्य है, न वह सत्य है। जैसे स्वप्न भ्रमजाल है वैसे संसार भी भ्रमजाल है। जिस संसार-वैभव को मोहमाया में उलझा व्यक्ति शाश्वत समझता है, वह शाश्वत नहीं है। अशाश्वत की भूल-भुलैया में न फंसो। पर जो शाश्वत आत्मा है, उस पर ध्यान केंद्रित करो।’
संकलन : ललित गर्ग