भीष्‍म पितामह ने पिछले जन्‍म में किया था यह पाप, इसलिए सहन करनी पड़ी इतनी पीड़ा

महाभारत के सबसे चर्चित पात्रों में से एक थे भीष्‍म पिताम‍ह। हृदय से दयालु, मर्मस्‍पर्शी, सदैव सन्‍मार्ग पर चलने वाले भीष्‍म पितामह को अपने आखिरी वक्‍त में इतनी पीड़ा क्‍‍‍‍‍‍यों सहन करनी पड़ी? पुराणों में बताया गया है कि महापुरुष होते हुए भी आखिर क्‍यों उन्‍हें इतनी यातनाएं सहनी पड़ी। यह सब उनके पूर्व जन्‍म के पाप का नतीजा था कि युद्ध में उनका शरीर बाणों से छलनी हो गया और उन्‍हें बाणों की शैय्या पर लेटकर अपना अंतिम वक्‍त गुजारना पड़ा।

पितामह को इच्‍छा मृत्‍यु का वरदान प्राप्‍त था। इसलिए पूरा शरीर छलनी होने के बावजूद भी उन्‍होंने प्राण नहीं त्‍यागे, क्‍योंकि उस वक्‍त सूर्य दक्षिणायन में चल रहे थे। धार्मिक मान्‍यता के अनुसार, जिस व्‍यक्ति की मृत्‍यु दक्षिणायन में होती है उसे मरने के बाद नर्क की प्राप्ति होती है। उन्‍हें पिता शांतनु से इच्‍छा मृत्‍यु का वरदान प्राप्‍त था। इसलिए वह इस गहन पीड़ा को सहन करते रहे और सूर्य के उत्‍तरायण आने के बाद ही प्राणों का त्‍याग किया।

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भीष्‍म पितामह के पूर्व जन्‍म के बारे में शास्‍त्रों में बताया गया है। शास्‍त्रों के अनुसार 8 वसु थे। एक दिन सभी 8 वसु वशिष्‍ट ऋषि के आश्रम में गए। भीष्‍म पितामह भी अपने पूर्व जन्‍म में उन 8 वसुओं में से एक थे। उस जन्‍म में उनका नाम द्यो वसु था। द्यो वसु को आश्रम में बंधी हुई कामधेनु गाय को देखकर लालच आ गया। उन्‍होंने उस गाय को चुरा लिया और बाकी सभी वसुओं ने गाय चुराने में उनकी मदद की।

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वशिष्‍ट ऋषि को जब इस बारे में पता चला तो उन्‍होंने सभी वसुओं को पृथ्‍वी लोक पर मनुष्‍य के रूप में जन्‍म लेने का शाप दे डाला। सभी वसुओं ने ऋषि से अपने अपराध की क्षमा मांगी तो उन्‍होंने द्यो को छोड़कर बाकी वसुओं को क्षमा कर दिया। उन्‍होंने सजा को धरती पर जन्‍म लेते ही शाप से मुक्‍त होने तक सीमित कर दिया। मगर द्यो को लंबी आयु तक मनुष्‍य के रूप में धरती पर रहने की सजा को बरकरार रखा।

द्यो ने अगले जन्‍म में गंगा मां के पुत्र के रूप में जन्‍म लिया। बड़े होकर उन्‍होंने युद्ध और शस्‍त्र कला की शिक्षा परशुराम जी से प्राप्‍त की। देवराज इन्‍द्र ने उन्‍हें दिव्‍य अस्‍त्र प्रदान किए तो मार्कण्‍डेय जी ने उन्‍हें चिरयौवन का वरदान दिया। महाभारत के युद्ध में पांडवों के प्रति उनका स्‍नेह विवाद की मुख्‍य वजह रही। वह रोजाना 10 हजार सैनिकों और 1 हजार घुड़सवारों को मार रहे थे, लेकिन पांडवों का वध नहीं कर पा रहे थे। दुर्योधन द्वारा लगातार दवाब बनाए जाने के बाद पितामह और अर्जुन के बीच युद्ध शुरू हुआ। भीष्‍म पितामह अर्जुन को भी अतिप्रिय थे। मगर भगवान कृष्‍ण द्वारा दिए गए गीता के उपदेशों के बाद अर्जुन ने पितामह पर बाणों की वर्षा कर दी। उनका पूरा शरीर छलनी हो गया और वह गिरकर बाणों की शैय्या पर लेट गए। कई दिनों तक पीड़ा को सहन करने के बाद सूर्य के उत्‍तरायण होने पर उन्‍होंने अपने प्राण त्‍यागे। पूर्व जन्‍म के पाप के कारण उन्‍हें अपनों से ही युद्ध करना पड़ा और इस तरह का हश्र हुआ।

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