पितृ पक्ष को लेकर ऐसी है कबीर की सोच, आप भी पढ़ेंगे तो जरूर सोचेंगे

संकलन: राधा नाचीज
कबीर बचपन से ही असाधारण बुद्धि के धनी थे। कभी-कभी तर्कों से वह अपने गुरु रामानंद को भी सोचने पर मजबूर कर दिया करते थे। कबीर के तर्कों में हमेशा सचाई होती थी जिससे वह गुरु रामानंद के बहुत प्रिय शिष्य बन गए थे। एक बार रामानंद के पितरों का श्राद्ध था। श्राद्ध में पितरों की मनपसंद चीजें बनाने का नियम तो होता ही है। रामानंद के पितरों को गाय का दूध बहुत पसंद था। उन्होंने कबीर को गाय का दूध लाने के लिए भेजा।

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रास्ते में एक गाय मृत पड़ी थी। कबीर ने उसके मुंह के आगे घास रख दी और उसके पास बर्तन लेकर खड़े हो गए। भला मृत गाय कहां से दूध देती? कबीर बर्तन लिए वहीं खड़े रहे। उधर श्राद्ध का समय बीतता जा रहा था। जब काफी देर हो गई और कबीर दूध लेकर नहीं लौटे तो रामानंद ने अपने दो शिष्यों को कबीर को देखने के लिए भेजा। जब वह भी बहुत देर तक नहीं लौटे तो गुरु रामानंद स्वयं दूसरे शिष्यों के साथ कबीर को खोजने निकले। मरी हुई गाय के पास कबीर को खड़ा देखकर उन्होंने पूछा, ‘यहां क्या कर रहे हो?’ कबीर बोले, ‘गुरु जी, यह गाय न तो दूध दे रही है और न ही घास खा रही है।’ रामानंद ने कहा, ‘बेटा, कहीं मरी हुई गाय भी दूध देती है और चारा खाती है?’

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गुरु की बात सुनते ही कबीर ने फौरन पूछा, ‘महाराज मेरे मन में जिज्ञासा यह है कि जब मरी हुई गाय दूध नहीं दे सकती न ही चारा खा सकती है तो फिर बरसों पहले परलोक सिधारे आपके पिता दूध कैसे पिएंगे?’ रामानंद अपने प्रिय शिष्य की इस बात पर निरुत्तर हो गए। उन्होंने कबीर को गले लगाते हुए कहा, ‘मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि तुम एक दिन अपने साथ अपने गुरु का भी नाम रोशन करोगे।’