परवरिश का यह तरीका हर किसी को समझ नहीं आता, क्या आप समझते हैं?

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

सुसंस्कारों के अभाव में मनुष्य का व्यक्तित्व गिरा हुआ ही बना रहता है। जिसका व्यक्तित्व निम्न श्रेणी का है, वह भले ही धन, विद्या, स्वास्थ्य, सौंदर्य, प्रतिभा आदि की दृष्टि से कितना ही बढ़ा-चढ़ा क्यों न हो, निम्न प्रकार का जीवन ही व्यतीत करेगा। उसे न तो स्वयं ही आंतरिक शांति मिलेगी और न उसके संपर्क में रहनेवाले सुखपूर्वक निर्वाह कर सकेंगे। दुर्गुणी व्यक्ति समाज के लिए, अपने लिए और परिवार के लिए अभिशाप सिद्ध होते हैं। इसलिए परिवार में सद्गुणों की, सुसंस्कारिता की अभिवृद्धि करना प्रत्येक विचारशील व्यक्ति का कर्तव्य माना गया है।

स्कूलों के अध्यापक लोग निर्धारित पाठ्यक्रम पढ़ा सकते हैं पर उनसे चरित्र शिक्षण की आशा नहीं करनी चाहिए। क्योंकि चरित्र कहने-सुनने में नहीं सीखा जाता। उसके लिए तो वातावरण एवं अनुकरणीय उदाहरण चाहिए। स्कूलों के अध्यापकों का संपर्क बच्चों से पढ़ाई के निर्धारित घंटों में ही होता है। उनके निजी चरित्र और व्यक्तिगत व्यवहार से सीधा संबंध न होने से छात्र कोई सीधा प्रभाव ग्रहण नहीं करते। बुराई तो कहीं से भी सीखी जा सकती है पर अच्छाई के लिए अनुकरण की प्रेरणा देनेवाले आदर्शों की आवश्यकता होती है। अभ्यास में अच्छाइयां तब आती हैं, जब प्रभवित करने के लिए वैसा वातावरण भी प्रस्तुत हो। इस प्रकार की व्यवस्था घर में रहे तो ही यह संभव है कि बच्चों पर जीवन को श्रेष्ठता के ढांचे में ढालनेवाली छाप पड़े।

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परिवार की सबसे बड़ी सेवा एक ही हो सकती है कि घर के हर व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाने का प्रयत्न किया जाए। जिस प्रकार अपनी त्रुटियों और बुराइयों को घटाने और हटाने की उपयोगिता है, उसी प्रकार परिवार-शरीर के प्रत्येक अंग को, प्रत्येक परिजन को सुसंस्कृत बनाना आवश्यक है। यह कार्य दूसरे लोग नहीं कर सकते। इसे स्वयं को ही करना पड़ेगा। क्योंकि घरवालों पर जितना अपना प्रभाव एवं अपनत्व है, उतना दूसरो का नहीं हो सकता। घर के प्रभावशाली व्यक्तियों को ही यह कार्य अपने हाथ लेना चाहिए।

डांटने-फटकारने व भला-बुरा कहने, दोषारोपण या झुंझलाहट से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। जिस प्रकार अपने ऊपर झुंझलाकर या लंबी-चौड़ी योजना बनाकर एक दिन में अपना सुधार नहीं हो सकता, उसी प्रकार परिवार की बहुत दिन की जमी हुई भली-बुरी स्थिति उतावलेपन में नहीं बदली जा सकतीं। बंदर को तमाशा करना सिखानेवाले कलंदर जिस धैर्य और सतत प्रयत्न से काम लेते हैं, वही रास्ता हमें भी अपनाना पड़ेगा। तोड़-फोड़ सरल होती है पर निर्माण कार्य कठिन है। मनुष्य की योग्यता और प्रतिभा उसकी रचना-शक्ति को देखकर ही आंकी जाती है। परिवार के निर्माण में बड़ी चतुरता, कुशलता, धैर्य, प्रेम, सहिष्णुता एवं आत्मीयता से काम लेना होता है। समय-समय पर साम, दाम, दण्ड, भेद की नीति भी अपनानी पड़ती है। तब कहीं शनैः शनैः अभीष्ट परिणाम सामने आता है।

इसके लिए घरेलू पाठशाला एवं सत्संग गोष्ठी के रूप में दैनिक शिक्षण क्रम का एक कार्यक्रम निर्धारित करना चाहिए। सुविधा के समय परिवार के सब लोग मिल-जुलकर बैठा करें और प्रेरणाप्रद प्रसंगों को लेकर वार्तालाप किया करें। दैनिक समाचार-पत्रों में छपनेवाली कुछ भली या बुरी खबरों को लेकर उनकी आलोचना इस ढंग से की जा सकती है कि सुननेवालों के ऊपर भलाई के प्रति निष्ठा और बुराई के लिए घृणा भाव पैदा हो। नई खबरें सुनने की सबकी इच्छा रहती है। आकर्षक, मनोरंजक और विवेचनात्मक ढंग से खबरें सुनाने का कार्य घर के सभी लोग पसंद करेंगे। उनका मनोरंजन भी होगा और शिक्षा भी मिलेगी। इसी प्रकार महापुरुषों के जीवन चरित्र का कोई अंश, व्रत-पर्वों के इतिहास, पौराणिक उपाख्यान, प्रेरक कथा-गाथाएं कहने का कार्यक्रम चलाया जाता रहे तो घर में सबका मनोरंजन भी होगा और अप्रत्यक्ष रूप में वे सब शिक्षाएं भी मिलने लगेंगी, जो परिजनों को सुसंस्कृत बनाने के लिए आवश्यक हैं।

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इस तरह परिवार को सभ्य, सुशिक्षित, सच्चरित्र एवं विवेकशील बनाने के लिए प्रयत्न करना प्रत्येक विचारवान मनुष्य का आवश्यक धर्मकर्तव्य है। उसे पूरा करने से हम अपना उत्तरदायित्व पूरा करते हैं। समाज को सुसंस्कृत बनाने में भारी योगदान देते हैं और अपने बगीचे के सुविकसित होने से स्वयं भी लाभांवित होते हैं। अतः इस दिशा में सबको ध्यान देना चाहिए। एक अनिवार्य कर्तव्य की तरह इसे लेकर इस पर तत्परतापूर्वक लग जाना चाहिए। परिवार निर्माण के साथ समाज निर्माण तभी संभव है।